Monday 26 December 2016

     प्रकृति की गोद मे बसा है नारायण स्वामी आश्रम 

नारायण स्वामी आश्रम (पिथोरागढ़)

दक्षिण भारत के कर्नाटक के मेंगलूर शहर में सन्न 1908 की मार्गशीष पूर्णिमा (श्री दत्तात्रेय जयंती) के पावन दिन गौड़ सारस्वत ब्राह्मण परिवार मे एक ओजस्वी बालक ने जन्म लिया जिसका नाम राघवेंद्र रखा गया। राघवेंद्र बचपन से ही भक्ति एंव आध्यात्म के मार्ग पर अग्रसर थे। प्राथमिक व माध्यमिक शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात असमय ही उनके पिता का स्वर्गवास हो गया। जिस कारण उन्हे अपने भाई, बहन व माता जी के साथ रंगून (बर्मा) अपने चाचा जी के पास जाना पड़ा। किन्तु परम ब्रह्म की सच्ची खोज व सच्ची शांति प्राप्त कर विश्व के त्रस्त व असहाय प्राणियों की सेवा करने की पुनीत भावना उनके मन मे उद्वेलित होने लगी। जिसके फलस्वरूप कुछ ही समय पश्चात वह घर त्याग कर हरिद्वार की पवित्र नगरी मे आ गये। महादेव शिव की ये नगरी उन्हे अच्छी तो लगी किन्तु मठाधिकारी सन्यासियों के जीवन को देखकर सोने के पिंजरे मे तोता बनकर रहना उन्हे नहीं भाया। कुछ समय हरिद्वार एंव ऋषिकेश मे निवास करने के उपरांत,वह उत्तराखंड के चारों धामों की यात्रा पर निकल पड़े।


पवित्र हिमालय की बर्फीली वादियाँ 

देवात्मा हिमालय बार बार उन्हे अपनी ओर आकर्षित कर रहा था। मार्ग मे हर पल, हर क्षण सतत "नारायण-नारायण" के पवित्र नाम का उच्चारण करना व भिक्षा से उदर पूर्ति करके हरी नाम मे मग्न रहना ही उनकी  दिनचर्या का अंग बन गया। टिहरी के निकट बिलांघना नदी के किनारे भगवान दत्तात्रेय के उपासक एक उच्च कोटी के उपासक सन्यासी महापुरुष से उन्होने सन्यास की दीक्षा ली। यहाँ से राघवेंद्र"श्री नारायणनंद" हो गये। गुरु जी से आशीर्वाद प्राप्त कर वह उत्तरकाशी आ गये जहां स्वामी श्री तेजसानन्दी जी और श्री तपोवन स्वामी जी के सान्निधेय मे रहकर,शास्त्रों का अध्ययन करते रहे। एक दिन अल्मोड़ा मे वास करते हुए उन्हे समाचार मिला की एक बड़े सन्यासी श्री रामानन्द जी अपने भक्तों के साथ,परम पावन कैलाश मानसरोवर (तिब्बित) की महायात्रा के लिए प्रस्थान करने वाले हैं। इस पुनीत यात्रा की उत्कृष्ट अभिलाषा लिए स्वामी जी श्री रामानन्द जी महाराज से मिले। रामानन्द जी बोले,"मार्ग मे सेवा करनी पड़ेगी,पानी भरना  पड़ेगा, जरूरत पड़ने पर रसोई भी बनानी पड़ेगी,"। स्वामी जी हर कठिनाई सहने व सेवा के लिए तैयार हो गये।


व्यास घाटी मे लेखक अपने ग्रुप के साथ 

यात्रा अल्मोड़ा से जोहार घाटी की ओर आरम्भ हुई। मार्ग मे कुंगरी,बिगरि एंव जयंती की दुर्गम,बर्फीली चोटियाँ पार करके यात्रा तीर्थापुरी पहुँची। तीर्थापुरी तिब्बित मे वह स्थान है जहाँ महादेव कैलाशपति जी ने भस्मासुर को भस्म किया था। यात्रा मे कठिन चढ़ाई और उतराई,बरसात,शीतल पवन के तीखे झोके,पीठ पर बोझ आदि से स्वामी जी को बड़ी परेशानी झेलनी पड़ी। फिर भी हिम्मत हारे बिना उन्होने दो महीने मे श्री कैलाश मानसरोवर की महायात्रा सम्पूर्ण की। कैलाशपति जी का ध्यान एंव मानसरोवर का स्नान करके स्वामी जी लिपुलेख दर्रे से वापसी मे दूसरी घाटी यानि ब्यास घाटी से होते हुए गर्व्यांग गाँव पहुंचे। उस समय इस सीमांत क्षेत्र मे यातायात,स्वास्थ,शिक्षा तथा अन्य मूलभूत सुविधाओं का अत्यंत अभाव था। क्षेत्र की उपेक्षा व दरिद्रता ने स्वामी जी को इतना उद्वलित किया कि उन्होने यहाँ निवास कर,इस क्षेत्र के सर्वागीण उत्थान का बीड़ा उठाया। 26 मार्च सन्न 1936 को ग्राम सोसा से लगभग 2.5 किमी. की दूरी तथा समुन्द्र तल से 6 हज़ार फुट की ऊँचाई पर एक विस्तृत टीले के ऊपर दो झोपड़ियों एंव "ॐ श्री नारायण नमः" मंत्र लिखी पताका के साथ इस आश्रम की नींव रखी गयी। उस समय अल्मोड़ा तथा टनकपुर तक ही मोटर मार्ग था जिस कारण भवन निर्माण संबंधी  सामग्री बड़ी ही कठिन परिस्थितियों मे आश्रम तक लाई जाती।



कुमाऊ मण्डल की प्राकृतिक छटा 

प्रकृति की गोद मे बसे इस आश्रम के निर्माण मे कई वर्ष लगे। हिमालय की अद्भुत छटा से परिपूर्ण यहाँ का शांत एकांत वातावरण भक्त-यात्रियो को बरबस ही अपनी ओर आकर्षित करता है। प्राकृतिक हरियाली के बीच आश्रम के सामने नेपाल की हिमछंदित धवल श्रेणियां अचल,नामज्यूयु पर्वत तथा शिवालिक श्रेणियां,अडिग ध्यानावस्थित अवस्था मे अनायास ही दर्शकों का मन मोह लेती है।आश्रम के चारों ओर फैली हरियाली एंव प्रकृति की अछूती सुषमा निहार कर कोई भी यात्री एंव पर्यटक भाव विभोर हुए बिना नहीं रह पाता।  


                                                            

नारायण स्वामी मंदिर का भीतरी दृश्य

आश्रम के प्रथम तल पर एक छोटा किन्तु अत्यंत आकर्षक मंदिर है जिसमे भगवान नारायण की अतिसुन्दर एंव रमणीय मूर्ति प्रतिष्ठित की गई है। मंदिर मे माँ भगवती,हनुमान जी,शंकर जी,गणेश जी तथा श्री लक्ष्मी जी की मूर्तियाँ,शालीग्राम,मंगल कलश एंव दक्षिणायनशंख भी यथास्थान सुशोभित है। साथ ही जगन्नाथ जी,सुभद्रा जी एंव बलभद्र जी की काष्ठनुमा मूर्तियाँ,चंवर एंव अन्य अलंकारिक सामग्री से मंदिर मंडप की शोभा देखने योग्य है। मंदिर भवन के पिछले भाग मे एक बड़े कमरे को पुस्तकालय-संग्रहालय का रूप दिया गया है। नारायण आश्रम मे एक अन्नपूर्णालय तथा 26 कमरे हैं जिसमे तीर्थयात्रियों एंव आगंतुक मेहमानों के ठहरने तथा भोजन आदि की अच्छी व्यवस्था है। आश्रम परिसर मे ही एक गौशाला,स्मृति कुटीर,सेब का बगीचा एंव शून्यता कुटीर भी स्थित है। आश्रम ट्रस्ट द्वारा शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए अस्कोट (पिथोरागढ़) के निकट नारायण नगर मे एक इंटरमीडिएट कॉलेज,पांगू मे कॉलेज एंव जयकोट,खोला,जाड़ापानी एंव छिलासी मे अनुदान देकर अपर प्राइमरी स्कूल आदि अनेक शैक्षणिक संस्थाएं संचालित की जा रही हैं। ट्रस्ट की स्वास्थ संबंधी सेवाएँ भी उल्लेखनीय हैं। श्री नारायण आश्रम पिथोरागढ़ जिले मे स्थित हैं,जहाँ पहुँचने के लिए तीर्थयात्रियों व प्रकृति प्रेमियों को धारचुला से जीप द्वारा 12किमी. पांगू होते हुए पहुँचना पड़ता है। 

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Wednesday 21 December 2016

                          रहस्यमयी पाताल भुवनेश्वर 

          जहाँ सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के एक साथ दर्शन होते हैं


     
पाताल भुवनेश्वर गुफ़ा मे शिवालय 

परम पावन हिमालय की विराट शृंखलाओं के मध्य मे स्थित कूर्माचल या कुमाऊँ मण्डल अपनी प्राकृतिक सुंदरता एंव नयनाभिराम दृशियावलियों के लिए विश्वप्रसिद्ध पर्यटन स्थल है जोकि उत्तर भारत के स्कॉटलैंड के नाम से भी विख्यात है। एक किदवन्ती के अनुसार सृष्टि के पालनकर्ता भगवान विष्णु जी ने दूसरे कुर्माव्तार (कछुए के अवतार) रूप मे इस भू लोक मे जन्म लिया। इस अवतार ने चम्पावती नदी के पूर्व "कूर्म पर्वत" पर तीन वर्ष तक खड़े रहकर कठोर तप किया। इस तप के द्वारा इस कूर्म अवतार के पदचिन्ह पत्थर के हो गए। तब से इस पर्वत का नाम कूर्माचल हो गया। जोकि बाद मे बिगड़ते हुए कूमू बन गया और अंत मे यही शब्द स्थानीय भाषा मे कुमाऊँ मे परिवर्तित हो गया। 



मुख्य पुजारी जी के साथ तीर्थयात्री 

कुमाऊँ की इस पुनीत धरती के गर्भ मे ऐसी अनेकों अद्भुत एंव आलौकिक गुफाएँ तथा पूज्यनीय मंदिर हैं जिनका उल्लेख युगों पूर्व से ही हमारे आदि ग्रन्थों मे होता आया है। ऐसी ही एक अप्रीतम सुंदर एंव रहस्यपूर्ण गुफा है पाताल भुवनेश्वर की,जो समुन्द्र तल से 1350 मीटर की ऊँचाई पर पिथोरा गढ़ जिले के सरयू तथा पूर्वी राम गंगा नदियों के बीच स्थित है। पाताल भुवनेश्वर गुफा मे प्रवेश करने के लिए यात्रियो को  2-3 फुट्ट के अतिसंकीर्ण द्वार मे से होते हुए 40-50 फुट्ट धरती के नीचे उतरना पड़ता है। यात्रियों के गुफ़ा मे उतरने और चढ़ने के लिए 82 सीढ़ियाँ हैं जोकि चट्टान को काट कर बनाई गयी हैं। सीढ़ियों के दोनों ओर ज़ंजीर लगी हुई है जोकि यात्रियों को काफी सुविधा प्रदान करती है। संकीर्ण मार्ग होने की वजह से यात्रियों को सरक कर नीचे जाना पड़ता है। बड़े से सभा कक्ष मे पहुँच कर सर्वप्रथम दर्शनार्थियों को छत की ओर देखने पर काफी बड़ा सा हिस्सा छतरी की तरह नज़र आता है। छतरी नुमा आकृति शेषनाग जी के फन के समान प्रतीत होती है,जिनके शीश पर समस्त पृथ्वी टिकी हुई है। इसके पास ही एक सुंदर सा हवन कुंड स्थित है जिसके विषय मे मान्यता है कि महापराक्रमी राजा जन्मजेय ने अपने पिता राजा परीक्षित के उद्धार हेतू अलङ्ग ऋषि के निर्देश पर इस कुंड मे नाग यज्ञ किया था। कुंड के उपर ही तक्षक नाग बना हुआ है। जिसके दंश से राजा परीक्षित की मृत्यु हुई थी। इसी स्थान से गुफ़ा के दूसरे कक्ष मे पहुँचने के लिए यात्रियों को शेषनाग जी की रीढ़ की हड्डी पर होकर गुजरना पड़ता है ज़मीन पर प्राकृतिक रूप से कटे हुए निशान इस बात को प्रमाणित करते हैं। कुछ आगे बढ़ने पर ऊपर की ओर अष्टकमल दल से निकलता हुआ पवित्र जल भगवान गणेश जी के कटे हुए मस्तक पर पड़ता है।

कुमाऊँ क्षेत्र की प्राकृतिक छटा का आनन्द उठाते मित्रों के साथ लेखक 

पुराण मे वर्णित कथा के अनुसार एक बार माता पार्वती ने  स्नान करने जाते समय अपने पुत्र गणेश जी को द्वार पर नियुक्त कर दिया एंव उन्हे आज्ञा दी कि मेरे आदेश के बिना कोई भी अंदर प्रविष्ट न हो। तभी देवाधिदेव कैलाशपति भगवान शिव वहाँ आए और अंदर प्रवेश करना चाहा। किन्तु गणेश जी ने उन्हे अपनी माँ की आज्ञानुसार अंदर प्रवेश नहीं करने दिया। शिव भगवान के बार बार आग्रह करने पर भी जब गणेश जी नहीं माने तो प्रभु ने क्रोधवाश अपने त्रिशूल द्वारा बालक का सर धड़ से अलग कर दिया। माँ पार्वती जब स्नान करके जब बाहर आई तो अपने पुत्र की ये दशा देखकर अत्यंत दुखी हुई। उन्होने शिवजी से अपने बालक को पुनः जीवित करने का आग्रह किया। तब महादेव जी ने कमलदल से अभिषेक करके गणेश जी का धड़ हाथी के सर से जोड़ा था। कमलदल के थोड़ा आगे ही तीन लिंग स्थित हैं जोकि तीन धाम केदारनाथ, बद्रीनाथ एंव अमरनाथ जी का प्रतिनिधित्व करते हैं। इन लिंगो के पास मे ही उग्र रूप धारण किए हुए काल भैरव की प्रतिमा शोभायमान है। इनके मुँह से पूंछ तक ब्रह्मलोक का मार्ग दर्शाया गया है। जनमान्यता है कि यदि कोई मनुष्य शुद्ध हृदय से मुख द्वार से प्रवेश करके संकरे मार्ग से होता हुआ पूंछ तक पहुँच जाए तो उसे मोक्ष अवश्य प्राप्त होता है। 

यहाँ से थोड़ा आगे चलने पर बाघम्बरधारी भगवान शंकर काआसन लटकता हुआ दिखाई देता है, साथ मे पाताल चंडी मुंडमाल धारण किए हुए देवी के वाहन शेर का मुख नज़र आता है। इसके थोड़ी पास ही चार द्वार बने हुए हैं। प्रथम पाप द्वार है, जो त्रेतायुग मे रावण की मृत्यु के पश्चात बंद हो गया था। दूसरा है रणद्वार,जो द्वापर मे महाभारत के युद्ध के बाद बंद हुआ। तीसरा धर्म द्वार है जो कलयुग की  समाप्ति पर बंद होगा। चौथा मोक्षद्वार है जोकि स्कन्द पुराण के अनुसार सतयुग की समाप्ति पर स्वयं ही बंद हो जाएगा। 

द्वापर युग मे भगवान श्री कृष्ण देवराज इन्द्र की नगरी अमरावती से इस भूलोक पर बड़ा ही सुंदर परिजात वृक्ष लेकर आए थे जोकि मोक्षद्वार से थोड़ा आगे ही एक छोटे से अहाते मे शोभायमान है। इसी अहाते मे कदलीवन मार्ग है जहां त्रेतायुग मे भगवान हनुमान और अहिरावण के बीच भीष्ण संग्राम हुआ था। पास मे ही एक कंदरा मे मार्कण्डेय ऋषि तपस्या रत हैं जहाँ पर बैठ कर उन्होने मार्कण्डेय पुराण की रचना की थी। इसी स्थान से थोड़ा ऊपर ब्रह्मकपाल है जहां सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा जी के पांचवे सर पर कामधेनु गायें के थनों से जल की धारा गिरती रहती है। इसी स्थान पर पित्रों का तर्पण किया जाता है। और अधिक देखने तथा जानने की आशा मे यात्री थोड़ा आगे बढ़ते हैं जहाँ पर सप्तकुंड निर्मित है। ब्रह्मा जी ने इस कुंड की पहरेदारी के लिए एक हंस नियुक्त किया था, उसे ये निर्देश था कि सर्पों के अतिरिक्त कोई भी अन्य जीव इस कुंड के जल को न पिए, किन्तु हंस के मन मे पाप जागृत हो गया और उसने स्वयं ही कुंड का अमृतजल पी लिया तब ब्रह्मा जी के श्राप से उसका मुख टेढ़ा हो गया।

कुमाऊँ मण्डल का एक सुंदर गाँव 

पाताल भुवनेश्वर मंदिर कमेटी शिवरात्रि के दिन यहाँ एक भव्य मेले का आयोजन करती है, जिसमे दूर दराज से दर्शनार्थी एंव भक्तजन पूजार्चना के लिए आते हैं। यहाँ के स्थानीय ग्रामवासी कार्तिक पूर्णिमा के दिन नई धान की फसल का भोग गुफा के मंदिर पर चढ़ाते हैं तथा अपने परिजनों की सुख समृद्धि की  प्रार्थना करते हैं। पाताल भुवनेश्वर की ये अद्भुत गुफा पर्यटन एंव धार्मिक दोनों ही दृष्टि से महत्वपूर्ण है। मंदिर कमेटी के गाइड यात्रियो को टॉर्च व जनरेटर की रोशनी मे गुफा मे प्रवेश करवाते हैं। पाताल भुवनेश्वर की यह रहस्यमई एंव अलौकिक गुफा पिथोरागढ़ जिले मे स्थित है जहाँ पहुँचने के लिए दो मार्ग उपलब्ध हैं - प्रथम हल्द्वानी से वाया अल्मोड़ा, सेराघाट, राईयागर है जोकि लगभग 200 किमी है। तथा दूसरा टनकपुर से 185 किमी वाया चम्पावत, घाट एंव गोगली हाट है।                      

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Monday 19 December 2016

                 आस्था एंव श्रद्धा का प्रतीक है नेपाल का मनोकामना मंदिर

मनोकामना मंदिर 


सुरमई हिमालय की गोद मे बसा नेपाल राष्ट्र हमेशा से ही प्रकृति प्रेमियों के लिए आकर्षण का केंद्र रहा है। विश्व की दस मे से आठ उच्च चोटियाँ यहीं पर देखने को मिलती हैं। माउंट एवरेस्ट जिसे नेपाली लोग सागरमाथा के नाम से पुकारते हैं,यहीं पर अवस्थित है। 81% हिन्दू जनसंख्या होने के कारण नेपाल पूर्व मे विश्व का एकमात्र हिन्दू राष्ट्र कहलाता था। किन्तु कुछ वर्ष पहले ही इसे लोकतांत्रिक देश घोषित किया गया है। चीन अधिकृत तिब्बित तथा भारत के बीच बसे नेपाल की एक विशेषता यह भी है कि यह आज तक किसी भी देश का गुलाम नहीं रहा। इसी नेपाल प्रदेश मे समुन्द्र तल से लगभग 5000 फुट की ऊंचाई पर पहाड़ की चोटी पर मनोकामना देवी का भव्य मंदिर स्थित है। हरी भरी वादियों एंव मनोहारी दृश्यों के बीच मंदिर की चोटी से त्रिशूल व पश्चिम की ओर मरसियागढ़ी की घाटियां तीर्थयात्रियों के चित को आकर्षित करती हैं। मंदिर से मनसुलु, हिमचुल एंव अन्नपूर्णा की दुग्ध धवल हिमचोटियों के दृश्यावलोकन से प्रकृति प्रेमी व तीर्थयात्री प्रसन्नचित हुए बिना नहीं रह पाते।

देवात्मा हिमालय कि सुरमई वादियाँ 

एक प्राचीन दंतकथा के अनुसार 16वीं शताब्दी में यहाँ एक गोरखा राजा रामशाह राज करता था, उसकी रानी के पास अनेक आलौकिक शक्तियाँ थी,जिसे थापा वंशज बकाराम का रहने वाला एक महा सिद्ध योगी लखनथापा ही जानता था। बाबा गौरखनाथ जी से सिद्धि प्राप्त लखनथापा रानी का अनन्ये भक्त था। एक दिन राजा ने रानी को देवताओं के समक्ष बैठे देखा, तभी एक आकाशवाणी हुई कि "हे राजन तुम्हें मेरी शक्तियों का ज्ञान होई गया है जिस कारण अब तुम राजा नहीं रहोगे। तुम्हारी आने वाली पीढ़ियों मे से कोई यहाँ राज करेगा"। ये आकाशवाणी तब सत्य हुई जब राजा ज्ञानेन्द्र के पूर्वज पृथ्वी नारायण शाह ने सम्पूर्ण  नेपाल राज्य को एकजुट कर उस पर अधिपत्य स्थापित किया। जब रामशाह की मृत्यु हुई तो उनका दाह संस्कार दोरान्दी व मनोकामना नदी के संगम पर किया गया। तब प्राचीन परंपरा के अनुसार रानी भी सती हुई। माँ के अनन्ये भक्त लखनथापा को जब यह पता चला तो वो बहुत दुखी हुआ, तब माँ ने उसके स्वप्न मे दर्शन देकर कहा कि मैं जल्द ही तुम्हारी इच्छा के अनुरूप प्रकट होऊँगी। कुछ महीनों बाद जब एक किसान अपना खेत जोत रहा था तो वहाँ से एक पत्थर निकला जिसमे से खून व दूध की धारा बह रही थी। लखनथापा को जब यह पता चला तो उसने वहाँ जाकर अपनी भक्ति एंव तांत्रिक शक्तियों से उस धारा को रोक दिया। लखन ने वहाँ एक सुंदर मंदिर का निर्माण किया। माँ अपने भक्त की इच्छा के अनुरूप प्रकट हुई थी जिस कारण इस स्थान का नाम मनोकामना देवी पड़ गया। भक्तों की मनोकामना पूर्ण करने वाली भगवती माँ पार्वती का ही स्वरूप हैं।

रोप वे 

तीर्थयात्री केबल कार से उतरने के बाद मंदिर बाज़ार से होते हुए ऊपर चोटी पर पहुँच कर माँ के पिंडी रूप के दर्शन करते हैं। इस मंदिर का अनेक बार जर्नौद्दार हुआ है और आज यह मंदिर काले पत्थरों के विशाल चबूतरे पर पगौड़ा शैली मे निर्मित है। चार मंज़िला इस मंदिर की दो छतें हैं,जोकि कारिगिरी के बेजोड़ नमूने को दर्शाती है। मंदिर के मुख्य द्वार पर बहुत ही सुंदर नक्काशी की गई है। मंदिर के पश्चिम की ओर दो अति प्राचीन वृक्ष हैं व दक्षिण पश्चिम की तरफ एक चकौर चबूतरा है,जहाँ नेपाली तीर्थयात्री भेड़-बकरियों की बलि देते हैं। वर्ष में एक बार यहाँ भव्य मेले का आयोजन होता है,जिसमे सम्पूर्ण विश्व से तीर्थयात्री भाग लेते हैं और माँ मनोकामना देवी के दर्शन कर पुण्य लाभ पाते हैं। आज भी मंदिर के मुख्य पुजारी लखनथापा के 17वें वंशज हैं।   

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Thursday 15 December 2016

                                नेपाल नरेश जिनके दर्शनों को नहीं जाते  - बूढ़ा  नीलकंठ 
जलमग्न बूढ़ा नीलकंठ महादेव 

देवात्मा हिमालय की अद्भुत,सौंदर्यपूर्ण एंव आलौकिक हिमछंदित घाटियों के मध्य मे स्थित नेपाल प्रदेश की महिमा अवर्णनीय है। नेपाल की राजधानी काठमांडू से लगभग 4 किमी. उत्तर दिशा की ओर शिवपुरी की मनोहर पहाड़ियों के आँचल में पत्थरों से बंधे एक चौकाकार तालाब मे जलशायी बूढ़ा नीलकंठ महादेव की विशाल एंव भव्य मूर्ति शयन मुद्रा मे विराजमान है। इस ब्रह्मांड के पालनकर्ता भगवान विष्णु जी की इस लावण्यपूर्ण मूर्ति के मुख वाले भाग को छोड़ कर प्राय: सम्पूर्ण भाग निर्मल जल के अन्दर रहता है।

                         
हिमालय की गोद मे बसा नेपाल 

"नीलकंठ" कैलाश पर्वत पर वास करने वाले भगवान शिव शंकर का ही एक नाम है। इस मूर्ति को गौर से देखने पर स्पष्टत: पता चलता है कि: शेष शैया होने के अलावा यह मूर्ति शंख,चक्र,गदा,पदम (विष्णु जी के आभूषण) से विभूषित तो है ही साथ ही इसके भाल पर त्रिपुण्ड,गले मे रुद्राक्ष की माला और बाजू मे सर्प (महादेव जी के आभूषण) भी सुशोभित हैं,जिस कारण इन्हें हरिहर की भी संज्ञा दी जाती है। अत; शेषशायी विष्णु जी की इस मूर्ति को बूड़ा नीलकंठ क्यों कहा जाता है,इसके पीछे एक किदवंती है,जिसके अनुसार प्राचीन काल मे पास के ही एक गाँव मे नीलकंठ नाम का एक बूढ़ा ब्राह्मण वास कर्ता था। वह भगवान विष्णु एंव शिव को समान भाव से पूजता था। उसी वृद्ध ब्राह्मण ने इस मंदिर का निर्माण करवाया। कालांतर मे उसी के नाम से यह मंदिर बूढ़ा नीलकंठ के नाम से विख्यात हुआ।


पशुपतिनाथ मंदिर (काठमांडू)

विष्णु जी की इस सजीव एंव चित आकर्षक मूर्ति को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि मानो ये अभी बोल उठेगी। इस मंदिर के निर्माण में बड़े बड़े चौकोर काले पत्थरों को एक के ऊपर एक जोड़कर बड़ी ही कुशलता से प्रयोग किया गया है। तालाब के बाईं ओर एक बहुत पुराना वृक्ष है,जिसके ऊपर बेहद सुंदर सफ़ेद कमल के समान फूल खिलते हैं (प्राय: कमल तालाब मे खिलते हैं)। तालाब के दायीं ओर 8-10 सीढ़ियाँ चढ़ने के उपरांत एक विशाल कक्ष है,जहाँ प्रतिदिन भजन आदि का आयोजन होता है। मंदिर परिसर के अंदर ही अनेक छोटे-छोटे मंदिर हैं जिनमें शिव -पार्वती,हनुमान जी,गणेश जी,माँ दुर्गा आदि देवी-देवताओं कि सुंदर मूर्तियाँ स्थापित हैं। इस मंदिर की एक खास विशेषता यह भी है कि नेपाल प्रदेश के कोई भी महाराजा इस मंदिर मे भगवान बूढ़ा नीलकंठ के दर्शन करने के लिए नही आते। नेपाली हिन्दू अपने राजा को भगवान विष्णु का ही अवतार मानते हैं और बेहद श्रद्धा भाव से पूजते हैं।  प्राचीन काल मे राजा प्रतापमल ने यह परम्परा स्थापित की थी कि अब से कोई भी राजा  भगवान बूढ़ा नीलकंठ के दर्शन नही करेगा,क्योंकि उनका मानना था कि विष्णु स्वयं अपने प्रतिरूप के दर्शन को जाये,ये एक हास्यस्पद बात लगती है। आज भी इस परम्परा को मानते हुए नेपाल के राजा बूढ़ा नीलकंठ के दर्शन करने नहीं जाते। तीर्थयात्री चारो ओर मनोहारी पहाड़ियों से घिरे इस स्थान पर हरिहर भगवान के दर्शन पाकर भाव  विभोर हुए बिना नही रह पाते।



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Friday 9 December 2016

                    प्रकृति की अनुपम कृति : ॐ पर्वत   


नवीडांग पड़ाव से पवित्र ॐ पर्वत 

भारतीय मुकुट की एक  शुभ्र मणि के समान अवस्थित देवात्मा हिमालय युगों -युगों  से अपनी अद्भुत सौंदर्यता एंव रहस्यमयी प्रकृति निर्मित कृतियों के लिए विख्यात है। चारों ओर फैली हरियाली,कल-कल नाद करती दूध समान सफ़ेद जल धाराएँ,नीले आकाश में स्वतंत्र विचरण करते पक्षियों के रंग-बिरंगे दल और चाँदी जैसी बर्फ से ढकी चोटियाँ,उन्ही सबका समावेश है पर्वत राज हिमालय। महादेव शिव की इस तपोस्थली में ऐसे अनेकों अद्भुत एंव अलौकिक स्थान हैं,जिनका उल्लेख हमारे आदि ग्रंथों मे अनादि काल से होता आया है। ऐसी ही एक अतिसुंदर एंव प्राकृतिक आकृति है,ॐ पर्वत,जोकि समुद्र तल से लगभग 13000 फुट की ऊँचाई पर पिथोरागढ़ जिले मे भारत -तिब्बित सीमा से मात्र 8 किमी. पहले,नवी डांग पड़ाव से दृष्टिगोचर होता है।


भोजन करते हुए कैलाश यात्री 

त्रिलोकपूजित महादेव शिवजी के मुख से सर्वप्रथम ओंकार (ॐ) प्रकट हुआ,जोकि महाकल्याणकारी मंत्र के रूप मे समस्त मंत्रों मे प्रथम स्थान पर लगता है। करोड़ों मंत्रों को प्रकट करने वाले वेद,और वेदों को प्रकट करने वाली माँ गायत्री भी ॐ से प्रकट हुई हैं। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के सभी सौरमंडलों का,सम्पूर्ण सृष्टि का बिन्दु एंव नाद से युक्त स्वर ॐ साक्षात निर्गुण-निराकार ब्रह्मा जी का ही अक्षर रूपी साकार रूप है। प्रकृति का ये सनातन नियम है कि  कोई भी मनुष्य शरीर त्यागने के पश्चात ही स्वर्ग के दर्शनों का पुण्य प्राप्त कर सकता है। किन्तु हमारे महादेव जी ने हम निकृष्ट मनुष्यों पर अनुकंपना करने हेतु हिमालय की  इन मनोरम वादियों में बर्फ से ॐ (पर्वत) की रचना की है,जोकि स्वर्ग  दर्शन की अनुभूति से किसी प्रकार कम नहीं है।


ITBP जवानों के साथ कैलाश यात्री 

कुमाऊँ मण्डल विकास निगम द्वारा संचालित परम पावन कैलाश मानसरोवर (तिब्बित) महायात्रा के मार्ग मे पड़ने वाले पड़ाव नवीडांग से इस पुनीत पर्वत के दर्शन तीर्थयात्रियों को होते हैं।  सीमांत क्षेत्र होने के कारण तीर्थयात्रियों एंव प्रकृति प्रेमियों को यहाँ पहुँचने के लिए धारचूला मे ही जिला अधिकारी से विशेष अनुमति लेनी पड़ती है,जोकि अत्यंत आवश्यक है। यात्री धारचुला से जीप द्वारा मंगती पहुँच सकते हैं,जहां से लगभग 60-65 किमी. का पैदल श्रम साध्ये मार्ग व दुर्गम पर्वतिए रास्तों  को तय करके नवी डांग पहुँचना पड़ता है। भयंकर गर्जना एंव तीव्र वेग से प्रवाहित होने वाली काली नदी के  साथ-साथ चलते हुए यात्री गाला,बूंदी एंव गूंजी होते हुए काला पानी पहुँचते हैं। यहाँ पर भारत-तिब्बित सीमा पुलिस के जवान अनुमति पत्र देखने के पश्चात ही यात्रियो को आगे जाने की इजाज़त देते है। काला पानी से नवी डांग 8 किमी. की दूरी पर स्थित है। मार्ग मे फैली अलौकिक सुंदरता एंव सुरमई पर्वतीय नज़ारों को निहारते हुए यात्री नवीडांग कैंप पर कब पहुँच जाते हैं,उन्हे पता ही नहीं चलता। सांगचुंता नदी के किनारे स्थित इस कैंप के समीप भारत,तिब्बित व टींकर (नेपाल) की सीमा आपस मे मिलती हैं। पड़ाव के ठीक सामने एक अद्भुत पर्वत के दर्शन तीर्थयात्रियों को होते हैं,जिस पर ॐ के आकार की प्रकृति द्वारा बर्फ निर्मित छवि दिखाई देती है। पर्वत पर ॐ की स्पष्टता को देख कर ऐसा प्रतीत होता है कि मानो लोक-लोकांतर के सृष्टिक्रम को संचालित करने वाले कैलाश निवासी सदाशिव भोले भण्डारी जी ने स्वयं अपने हाथों से इसे लिखा हो। ॐ पर्वत के दर्शनों के पश्चात तीर्थयात्रियों के मन मे केवल एक ही विचार आता है कि मानव निर्मित कोई भी आकृति,प्राकृतिक कृति से अच्छी नहीं हो सकती।   

   प्रकृ भारतिए  अbharनुपbharम कृति : ॐ प
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Sunday 27 November 2016

                         

  माँ गंगा :एक मोक्षदायनी धारा


गंगोत्री धाम मे लेखक अपने मित्रों के साथ 


प्राचीन काल से ही भारत भूमि में नदियों का अपना आध्यात्मिक एंव पौराणिक महत्व रहा है। युगो-युगों से हमारे आदिग्रंथ इन महान जल धाराओं की महिमा को दर्शाते हुए,एक दिव्य एंव अलौकिक प्रस्तुति पेश करते आए हैं। इन्ही जलधाराओं में से एक अति पावन व पुनीत धारा हैं गंगा जी की,जिसकी महिमा का व्याख्यान हमारे ऋषि -मुनि,साधू-संत व महात्मा लोग सदियों से करते आ रहे हैं। इस पावन गंगा जी के स्मरण मात्र से ही मनुष्य के जन्म-जन्मांतर के पाप स्वयं ही धूल जाते हैं,उसी दिव्य सलिला को हम बारंबार प्रणाम करते हैं। हिमगिरि के हिम छंदित शिखरों से निकल कर गंगा जी,मैदानों पर से विहारते हुए लगभग 2500 किमी. का एक मनोरम सफर पूर्ण कर गंगा-सागर के समीप बंगाल की खाड़ी मे समाती हैं। अपनी इस अति पावन यात्रा में गंगा जी करोड़ो भारतवासियों का उद्धार करते हुए,उन्हें लाभान्वित करती हैं। स्कन्द पुराण में तो यह तक कहा गया है कि सतयुग मे ध्यान द्वारा,त्रेता युग मे योग द्वारा,द्वापर युग मे तपस्या से एंव कलयुग मे मात्र गंगा स्नान से मनुष्य को मोक्ष पद प्राप्त हो जाएगा। विश्व विजेता एग्लेंडर के मुख से गंगा जी के दर्शनों के पश्चात यही शब्द निकले थे कि "यदि मनुष्य का कोई अंतिम पड़ाव है तो वह है गंगा जी का पावन तट"। गंगा जी भी कोई सामान्य परिस्थिति मे अवतरित नहीं हुई थी इस मृत्यु लोक मे। राजा भागीरथ ने हजारों वर्ष के कठोर तप द्वारा गंगा जी को स्वर्ग से उतार कर भूमंडल मे लाने का अत्यंत कठिन कार्य। ब्रह्मा जी के कमंडल मे से निकल कर जब भागीरथी की पुनीत धारा मृत्यु लोक की तरफ चली तो उनके प्रवाह को देखकर ऐसा प्रतीत हुआ कि मानो वह सम्पूर्ण भूलोक को अपने साथ बहा के ले जाएंगी,तब आकाश मार्ग से उतर कर भागीरथी जी परम पावन कैलाश पर्वत पर विराजमान प्रभु सदाशिव जी की जटाओं मे प्रवाहित हुईं। 


जलमग्न शिवलिंग - गौरीकुंड (गंगोत्री धाम)

आज भी जब गंगा जी,गौमुख से निकल कर गंगोत्री पहुँचती हैं तो वहीं पास मे स्थित प्राकृतिक "जलमग्न शिवलिंग" (सदैव जल से ढका हुआ) पर उनकी धारा पड़ती है जोकि इस बात को पूर्ण रूप से प्रमाणित करता है कि गंगा जी महादेव शिवजी की स्वर्णिम जटाओं से निकल कर मैदानों की तरफ आगे बढ़ती हैं। पर्वतराज हिमालय की पुत्री गंगा जी  देवलोक से अवतरित होने वाली पुण्य सलिला सम्पूर्ण भारतभूमि का उद्धार करने वाली बेहद महान व गौरवशाली नदी हैं। पावन भागीरथी के समक्ष एकांत मे ध्यान चिंतन से मनुष्य को जो अलौकिक व दिव्य चेतना की अनुभूति प्राप्त होती है,उसे शब्दों के माध्यम से वर्णित करना अति कठिन कार्ये है क्योंकि गंगा जी की हृदय हारी ध्वनि मन एंव तन दोनों को सुखदायक आनंद से ओत-प्रोत करने में सम्पूर्ण रूप से सक्षम है। 


देवात्मा हिमालय में प्राकृतिक छटा 

प्रत्येक मनुष्य श्रद्धा को अपने मन की आखों से देखता है। किसी की श्रद्धा पर्वतों मे है,तो किसी की जलधाराओं में,कोई माटी की मूर्ति में श्रद्धावान होकर प्रभु को ध्याता है,तो कोई पशुओं की पूजा करके आनंदित होता है। श्रद्धा का मूल तत्व है विश्वास और विश्वास तर्कों को अपने से कोसों दूर छोड़ देता है। कभी-कभी मनुष्य को अविश्वासी होकर भी कार्य करते रहना चाहिए। नास्तिक लोगों का जीवन भी कितना विचित्र है। उनके लिए न तो कोई तीर्थ है और न कोई तीर्थयात्रा ,पाप-पुण्य के चक्रव्यूह मे वह फंसना नहीं चाहते,परमेश्वर तत्व का उनके लिए न कोई अस्तित्व है और न महत्व। कितना पावन जीवन वह व्यर्थ ही नीरस और निर्जीव रूप मे नष्ट कर देतें हैं। उनके लिए तीर्थटन,केवल पर्यटन का ही एक विस्तृत स्वरूप है। तीर्थटन मे छिपे अमृत तत्व का उन्हे बिलकुल भी आभास ही नही है। श्रद्धावान एंव सौभाग्यशाली मनुष्यों को ही अपने पूर्वजन्म के सत्तकर्म के कारण ही तीर्थयात्रा का पुण्यलाभ प्राप्त होता है। हम सबको अटूट श्रद्धावान होकर भागीरथी जी के समक्ष प्रार्थना करनी चाहिए कि - हे ! पतित पावनी,जग जननी माँ आप पापियों और पतितो का समान रूप से उद्धार करते हुए,पुण्य भारत भूमि मे विहारती रहें और आपका दिव्य अलौकिक अमृत जल,जिसमे आपका अमृतमय वात्सल्य मिश्रित है हमे अपार स्नेह व शान्ति प्रदान करें,इसी मनोकामना के साथ हम बारंबार गंगा मैया को प्रणाम करते हैं।       

                                         
भागीरथी शिला 


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Saturday 26 November 2016

              

       स्तंभेश्वर महादेव - जहाँ कार्तिकेय जी ने क्षमा माँगी 



जलमग्न स्तंभेश्वर महादेव 

अनादिकाल से आर्य भूमि भारत वर्ष,अनेकों चमत्कारों एंव अवतारों से अभिभूत होती आई है। इस महान भूमि पर कई एसे रहस्यमय तीर्थ स्थान हैं,जिनकी जानकारी आम मनुष्य के लिए अभी भी विस्मय व आश्चर्य का विषय है। ऐसा ही एक महातीर्थ भारत के पश्चिमी राज्य गुजरात के अंतिम छोर पर समुद्र तट के निकट महिसागर स्तंभेश्वर महादेव के नाम से स्थित है। समुद्र से लगभग 300-400 गज की दूरी पर स्तंभेश्वर शिवलिंग स्थापित है,जहां प्रतिदिन दो बार समुद्र का जल अपने आप आगे बढ़ता है तथा इस आलौकिक शिवलिंग को पूरी तरह जल से ढक देता है। इस विचित्र व रहस्यमयी प्राकृतिक प्रक्रिया को देखकर ऐसा प्रतीत होता है,मानो स्वयं समुद्र देवता कैलाशपति महादेव का जलाभिषेक करने आये हैं। तिथि के अनुसार चलने वाली यह प्रक्रिया किसी भी मनुष्य को आचंभित व रोमांचित करने के लिए पर्याप्त है। सतयुग मे इस महातीर्थ पर कार्तिकेय जी ने अति कठोर तप किया था,जिस कारण उनके मन मे अहंकार की उत्पत्ति हुई। तब धर्म देवता ने इस तीर्थ राज को स्तम्भ अर्थात गर्व के कारण अप्रसिद्ध होने का श्राप दे डाला,किन्तु कार्तिकेय जी के क्षमा याचना करने पर धर्म देवता ने इस श्राप का निवारण इस प्रकार किया कि ज्यों ज्यों कलयुग बढ़ेगा,इस तीर्थ की विख्याति चारों और फैलेगी। अभी तक इस तीर्थ के गुप्त होने का यही प्राचीन वृतांत है।
दुग्धाभिषेक स्तंभेश्वर महादेव 

स्कन्द पुराण के कुमारिका खंड में नारद जी के यह पूछने पर कि इस पृथ्वी पर श्रेष्ठ,रमणीय एंव मनोरम तीर्थ कौन सा है,तो महर्षि भृग जी बोले कि महिनाम से प्रसिद्ध एक परम पावन नदी है,जो सर्व तीर्थमयी होने के साथ ही परम कल्याणकारी भी है। वह देखने मे मनोरम,सौम्य तथा महापापों का विनाश करने वाली पुण्य सलिला है। यदि कोई मनुष्य एक स्थान में सब तीर्थों का संयोग पाना चाहता है तो परम पुण्यमयी महिसागर संगम तीर्थ ही वह दुर्लभ स्थान है जिस स्थान पर मही नदी और समुद्र का संगम होता है। यही वो स्तम्भेश्वर तीर्थ है, जो तीनों लोकों मे विख्यात है। यहाँ जो मनुष्य स्नान करते हैं,वे सब पापों से मुक्त हो जाने के कारण यमराज के समीप नहीं जाते। महिसागर नामक गुप्त क्षेत्र में पूर्णिमा एंव अमावस्या को किया हुआ स्नानदानजप, होम और विशेषतः पिंडदान सब अक्षय होता है। पूर्वकाल में देवऋषि नारद के यहाँ वास करने पर शनिदेव जी ने उन्हे यह वरदान दिया कि जिस समय शनिवार के दिन अमावस्या हो, उस दिन यहाँ श्रद्धापूर्वक स्नान व दान करने पर अथवा श्रावण मास के शनिवार को अमावस्या तिथि व उसी दिन सूर्य की संक्रांति एंव व्यतिपात योग होने पर इस तीर्थ में किया गया कोई भी पुण्य कार्य महाफलदायक होगा। 

पुष्पाभिषेक स्तम्भेश्वर महादेव 

कार्तिकेय जी की भक्ति से प्रसन्न होकर कैलाश शिखर पर निवास करने वाले महादेव भोलेनाथ जी ने उन्हे यह आशीर्वचन दिया कि मैं सदैव यहीं निवास करूंगा अथवा जो मनुष्य बैसाख मास पूर्णिमा को नाना प्रकार के उत्तम कलशों द्वारा विधिपूर्वक सुगंधयुक्त जल से कुमकुम, पुष्पमाला, चन्दन, तंबूल, काजल, ईख, लवण और जीरा यह आठ सौभाग्यसूचक वस्तुओं से इस शिवलिंग की पूजा अर्चना करेगा, वह सदैव प्रसन्नतापूर्वक आरोग्य, पुत्रवान, धन तथा उत्तम सुख को प्राप्त होगा। यहाँ एक आश्रम का भी निर्माण किया गया है, जिसमे प्राचीन तपोवन शिक्षा के प्रचार-प्रसार हेतु बच्चों को वैदिक शिक्षा निःशुल्क प्रदान की जाती है। कावी निवासी श्री बंसीधर भट्ट जी के अनुसार श्रावण मास मे यहाँ बहुत भारी मेला लगता है तथा स्तंभेश्वर महादेव शिवालय में महारुद्राभिषेक व लघुरूद्रि पाठ का आयोजन किया जाता है। 
गुजरात के बड़ौदा अथवा बरुच शहरों से स्तंभेश्वर तीर्थ की दूरी लगभग 80-85 किलोमीटर है। तीर्थयात्री व रहस्यमयी जलाभिषेक (समुद्र देवता द्वारा) देखने के इच्छुक व्यक्ति गुजरात पथ परिवहन व निजी वाहन द्वारा सड़क मार्ग से जम्बू शहर (50-55 किलोमीटर) होते हुए कावी (30 किलोमीटर) पहुँच सकते हैं।  

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Sunday 20 November 2016

          कैलाश मानसरोवर -आध्यात्मिक चेतना की विराट अनुभूति
शिव स्थली में महादेव का आशीर्वाद

सृष्टि के संचालक शिव शक्ति का निवास स्थान परम पवित्र कैलाश मानसरोवर सदा से ही सम्पूर्ण संसार को अपनी ओर आकर्षित करता रहा है। अनादि काल से ही कैलाश भूमि शास्त्रों मे सबसे पावन पुनीत क्षेत्र के रूप में चिंतकों, दार्शनिकों, कवियों एंव भक्तों की आस्था का अटूट केंद्र रही है। युगों - युगों से कैलाश के श्वास से ही सारी सृष्टि सुवासित होती आई है। इस आलौकिक भूमि पर आने के पश्चात ही इस बात की विराट अनुभूति होती है कि देवाधिदेव महादेव सदाशिव भोलेनाथ जी ने अपना निवास इसे ही क्यूँ चुना। भगवान शिव एंव माँ पार्वती की परम प्रिये क्रीड़ास्थली कैलाशभूमि पुरुष एंव प्रकृति अर्थात शिव और शक्ति के साक्षात दर्शनों का सुअवसर तीर्थ यात्रियो को प्रदान करती है। अनेकों नामों से विख्यात कैलाश पर्वत मेरु, सुमेरु, हिमाद्रि, रजतगिरी आदि अलंकारों से सुशोभित है तथा एक साथ चार धर्मों (हिंदुओं, बोद्ध, जैन, व तिब्बित के मूल निवासी बाम्प) धर्मावलंबियों द्वारा समान रूप से सपूजित है। सृष्टि निर्माण का मूल केंद्र होने के कारण प्रकृति ने इस क्षेत्र को इतना अनुपम एंव अलौकिक बनाया है कि जो भी मनुष्य एक बार यहाँ की अद्भूत छटा का रसपान कर लेता है, वह बारंबार यहाँ आने का प्रयास करता है।  

तिब्बित क्षेत्र में महायात्रा का आनन्द लेते कैलाशी 

पावन कैलाश मानसरोवर भूमि चीन द्वारा अधिकृत तिब्बित क्षेत्र में आती है। चीनी अधिपत्य से पूर्व प्राचीन काल से ही कैलाश मानसरोवर यात्रा निर्विघ्न सम्पन्न होती आ रही थी। किन्तु सन् 1959 में चीनी काम्यूनिस्ट सरकार ने इस तीर्थ यात्रा पर प्रतिबंध लगा दिया था। भारत सरकार के अत्यधिक अनुरोध के कारण 22 वर्ष बाद इस यात्रा पथ को दोबारा तीर्थ यात्रियों के लिए पुनः खोल दिया गया। वर्तमान मे कैलाश मानसरोवर यात्रा पर जाने के लिए तीन मार्ग अधिकृत हैं। 

भारतीय मार्ग (पिथौरागढ़) में तीर्थयात्री   

प्रथम मार्ग में तीर्थयात्री पिथोरागढ़, धारचूला, व लिपुलेख पास होते हुए लगभग 250 किमी का दुर्गम एंव श्रम साध्ये पैदल मार्ग तय कर कैलाश पहुँचते हैं। इस मार्ग की महायात्रा भारत सरकार द्वारा आयोजित होती है जिसमे सम्पूर्ण वर्ष में केवल 800-1000 तीर्थयात्री ही जाते हैं। समुद्र तल से लगभग 15000 फुट की ऊँचाई पर स्थित होने के कारण यहाँ जाने के लिए तीर्थयात्री का सम्पूर्ण रूप से स्वस्थ होना अत्यधिक आवश्यक है। चीन क्षेत्र मे होने के कारण तीर्थ यात्री को पासपोर्ट एंव वीज़ा की आवश्यकता पड़ती है। इस मार्ग की यात्रा एक माह में सम्पन्न होती है एंव लगभग 1,50000 का खर्च आता है जो की यात्री को स्वयं वहन करना पढ़ता है। अभी हाल ही के वर्षों मे भारत सरकार ने सिक्किम के नथुला पास से भी यात्रा आरम्भ की है। इस मार्ग से जाने वाले यात्रियो को पैदल बिल्कुल भी नहीं चलना पड़ता। इस मार्ग से यात्रा करने पर लगभग 1,80000 का खर्च आता है।


पशुपतिनाथ मंदिर (नेपाल)

तृतीय मार्ग नेपाल की राजधानी काठमांडू से कोठारी बार्डर, नयलाम, सागा होते हुए कैलाश की तलहटी तक पहुँचता है। इस मार्ग से प्राइवेट टूर ऑपरेटर तीर्थयात्रियों को बस एंव लैंडकुरुजर जीपों द्वारा बिना पैदल चले 18 दिन मे यात्रा सम्पन्न करवाते हैं। इस मार्ग से यात्रा करने पर लगभग 1,50000 का खर्च आता है तथा यात्रियो की संख्या पर भी कोई प्रतिबंध नहीं है। 

पवित्र मानसरोवर के किनारे पूजार्चना करते श्रद्धालु 

परम सत्य स्वरूप महादेव शिव के निवास स्थान में पहुँच कर एंव मानसरोवर मे स्नान करने मात्र से ही मनुष्य जीते जी ही कई जन्मों के बंधनो से मुक्त हो जाता है और शरीर त्यागने के पश्चात कैलाश निवासी सदाशिव भोलेनाथ के सानिध्ये को प्राप्त करता है। इसलिए इस महायात्रा को सशरीर स्वर्गारोहण का नाम दिया गया है। लोक-लोकान्तर के सृष्टिक्रम को संचालित करने वाले महादेव जिस रजतगिरी कैलाश शिखर पर विराजमान हैं उसके दर्शन मात्र से ही मनुष्य पाप मुक्त हो जाता है। कैलाश मानसरोवर से आए हुए तीर्थयात्रियों का यह अनुभव है कि इस दुर्गम एंव कष्टदायी (आनंददायी) यात्रा को सम्पूर्ण करने के पश्चात शेष जीवन सफर सुगम हो जाता है। 


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