रहस्यमयी पाताल भुवनेश्वर
जहाँ सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के एक साथ दर्शन होते हैं
पाताल भुवनेश्वर गुफ़ा मे शिवालय |
परम पावन हिमालय की विराट शृंखलाओं के मध्य मे स्थित कूर्माचल या कुमाऊँ मण्डल अपनी प्राकृतिक सुंदरता एंव नयनाभिराम दृशियावलियों के लिए विश्वप्रसिद्ध पर्यटन स्थल है जोकि उत्तर भारत के स्कॉटलैंड के नाम से भी विख्यात है। एक किदवन्ती के अनुसार सृष्टि के पालनकर्ता भगवान विष्णु जी ने दूसरे कुर्माव्तार (कछुए के अवतार) रूप मे इस भू लोक मे जन्म लिया। इस अवतार ने चम्पावती नदी के पूर्व "कूर्म पर्वत" पर तीन वर्ष तक खड़े रहकर कठोर तप किया। इस तप के द्वारा इस कूर्म अवतार के पदचिन्ह पत्थर के हो गए। तब से इस पर्वत का नाम कूर्माचल हो गया। जोकि बाद मे बिगड़ते हुए कूमू बन गया और अंत मे यही शब्द स्थानीय भाषा मे कुमाऊँ मे परिवर्तित हो गया।
मुख्य पुजारी जी के साथ तीर्थयात्री |
कुमाऊँ की इस पुनीत धरती के गर्भ मे ऐसी अनेकों अद्भुत एंव आलौकिक गुफाएँ तथा पूज्यनीय मंदिर हैं जिनका उल्लेख युगों पूर्व से ही हमारे आदि ग्रन्थों मे होता आया है। ऐसी ही एक अप्रीतम सुंदर एंव रहस्यपूर्ण गुफा है पाताल भुवनेश्वर की,जो समुन्द्र तल से 1350 मीटर की ऊँचाई पर पिथोरा गढ़ जिले के सरयू तथा पूर्वी राम गंगा नदियों के बीच स्थित है। पाताल भुवनेश्वर गुफा मे प्रवेश करने के लिए यात्रियो को 2-3 फुट्ट के अतिसंकीर्ण द्वार मे से होते हुए 40-50 फुट्ट धरती के नीचे उतरना पड़ता है। यात्रियों के गुफ़ा मे उतरने और चढ़ने के लिए 82 सीढ़ियाँ हैं जोकि चट्टान को काट कर बनाई गयी हैं। सीढ़ियों के दोनों ओर ज़ंजीर लगी हुई है जोकि यात्रियों को काफी सुविधा प्रदान करती है। संकीर्ण मार्ग होने की वजह से यात्रियों को सरक कर नीचे जाना पड़ता है। बड़े से सभा कक्ष मे पहुँच कर सर्वप्रथम दर्शनार्थियों को छत की ओर देखने पर काफी बड़ा सा हिस्सा छतरी की तरह नज़र आता है। छतरी नुमा आकृति शेषनाग जी के फन के समान प्रतीत होती है,जिनके शीश पर समस्त पृथ्वी टिकी हुई है। इसके पास ही एक सुंदर सा हवन कुंड स्थित है जिसके विषय मे मान्यता है कि महापराक्रमी राजा जन्मजेय ने अपने पिता राजा परीक्षित के उद्धार हेतू अलङ्ग ऋषि के निर्देश पर इस कुंड मे नाग यज्ञ किया था। कुंड के उपर ही तक्षक नाग बना हुआ है। जिसके दंश से राजा परीक्षित की मृत्यु हुई थी। इसी स्थान से गुफ़ा के दूसरे कक्ष मे पहुँचने के लिए यात्रियों को शेषनाग जी की रीढ़ की हड्डी पर होकर गुजरना पड़ता है ज़मीन पर प्राकृतिक रूप से कटे हुए निशान इस बात को प्रमाणित करते हैं। कुछ आगे बढ़ने पर ऊपर की ओर अष्टकमल दल से निकलता हुआ पवित्र जल भगवान गणेश जी के कटे हुए मस्तक पर पड़ता है।
कुमाऊँ क्षेत्र की प्राकृतिक छटा का आनन्द उठाते मित्रों के साथ लेखक |
पुराण मे वर्णित कथा के अनुसार एक बार माता पार्वती ने स्नान करने जाते समय अपने पुत्र गणेश जी को द्वार पर नियुक्त कर दिया एंव उन्हे आज्ञा दी कि मेरे आदेश के बिना कोई भी अंदर प्रविष्ट न हो। तभी देवाधिदेव कैलाशपति भगवान शिव वहाँ आए और अंदर प्रवेश करना चाहा। किन्तु गणेश जी ने उन्हे अपनी माँ की आज्ञानुसार अंदर प्रवेश नहीं करने दिया। शिव भगवान के बार बार आग्रह करने पर भी जब गणेश जी नहीं माने तो प्रभु ने क्रोधवाश अपने त्रिशूल द्वारा बालक का सर धड़ से अलग कर दिया। माँ पार्वती जब स्नान करके जब बाहर आई तो अपने पुत्र की ये दशा देखकर अत्यंत दुखी हुई। उन्होने शिवजी से अपने बालक को पुनः जीवित करने का आग्रह किया। तब महादेव जी ने कमलदल से अभिषेक करके गणेश जी का धड़ हाथी के सर से जोड़ा था। कमलदल के थोड़ा आगे ही तीन लिंग स्थित हैं जोकि तीन धाम केदारनाथ, बद्रीनाथ एंव अमरनाथ जी का प्रतिनिधित्व करते हैं। इन लिंगो के पास मे ही उग्र रूप धारण किए हुए काल भैरव की प्रतिमा शोभायमान है। इनके मुँह से पूंछ तक ब्रह्मलोक का मार्ग दर्शाया गया है। जनमान्यता है कि यदि कोई मनुष्य शुद्ध हृदय से मुख द्वार से प्रवेश करके संकरे मार्ग से होता हुआ पूंछ तक पहुँच जाए तो उसे मोक्ष अवश्य प्राप्त होता है।
यहाँ से थोड़ा आगे चलने पर बाघम्बरधारी भगवान शंकर काआसन लटकता हुआ दिखाई देता है, साथ मे पाताल चंडी मुंडमाल धारण किए हुए देवी के वाहन शेर का मुख नज़र आता है। इसके थोड़ी पास ही चार द्वार बने हुए हैं। प्रथम पाप द्वार है, जो त्रेतायुग मे रावण की मृत्यु के पश्चात बंद हो गया था। दूसरा है रणद्वार,जो द्वापर मे महाभारत के युद्ध के बाद बंद हुआ। तीसरा धर्म द्वार है जो कलयुग की समाप्ति पर बंद होगा। चौथा मोक्षद्वार है जोकि स्कन्द पुराण के अनुसार सतयुग की समाप्ति पर स्वयं ही बंद हो जाएगा।
द्वापर युग मे भगवान श्री कृष्ण देवराज इन्द्र की नगरी अमरावती से इस भूलोक पर बड़ा ही सुंदर परिजात वृक्ष लेकर आए थे जोकि मोक्षद्वार से थोड़ा आगे ही एक छोटे से अहाते मे शोभायमान है। इसी अहाते मे कदलीवन मार्ग है जहां त्रेतायुग मे भगवान हनुमान और अहिरावण के बीच भीष्ण संग्राम हुआ था। पास मे ही एक कंदरा मे मार्कण्डेय ऋषि तपस्या रत हैं जहाँ पर बैठ कर उन्होने मार्कण्डेय पुराण की रचना की थी। इसी स्थान से थोड़ा ऊपर ब्रह्मकपाल है जहां सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा जी के पांचवे सर पर कामधेनु गायें के थनों से जल की धारा गिरती रहती है। इसी स्थान पर पित्रों का तर्पण किया जाता है। और अधिक देखने तथा जानने की आशा मे यात्री थोड़ा आगे बढ़ते हैं जहाँ पर सप्तकुंड निर्मित है। ब्रह्मा जी ने इस कुंड की पहरेदारी के लिए एक हंस नियुक्त किया था, उसे ये निर्देश था कि सर्पों के अतिरिक्त कोई भी अन्य जीव इस कुंड के जल को न पिए, किन्तु हंस के मन मे पाप जागृत हो गया और उसने स्वयं ही कुंड का अमृतजल पी लिया तब ब्रह्मा जी के श्राप से उसका मुख टेढ़ा हो गया।
कुमाऊँ मण्डल का एक सुंदर गाँव |
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