Monday 19 December 2016

                 आस्था एंव श्रद्धा का प्रतीक है नेपाल का मनोकामना मंदिर

मनोकामना मंदिर 


सुरमई हिमालय की गोद मे बसा नेपाल राष्ट्र हमेशा से ही प्रकृति प्रेमियों के लिए आकर्षण का केंद्र रहा है। विश्व की दस मे से आठ उच्च चोटियाँ यहीं पर देखने को मिलती हैं। माउंट एवरेस्ट जिसे नेपाली लोग सागरमाथा के नाम से पुकारते हैं,यहीं पर अवस्थित है। 81% हिन्दू जनसंख्या होने के कारण नेपाल पूर्व मे विश्व का एकमात्र हिन्दू राष्ट्र कहलाता था। किन्तु कुछ वर्ष पहले ही इसे लोकतांत्रिक देश घोषित किया गया है। चीन अधिकृत तिब्बित तथा भारत के बीच बसे नेपाल की एक विशेषता यह भी है कि यह आज तक किसी भी देश का गुलाम नहीं रहा। इसी नेपाल प्रदेश मे समुन्द्र तल से लगभग 5000 फुट की ऊंचाई पर पहाड़ की चोटी पर मनोकामना देवी का भव्य मंदिर स्थित है। हरी भरी वादियों एंव मनोहारी दृश्यों के बीच मंदिर की चोटी से त्रिशूल व पश्चिम की ओर मरसियागढ़ी की घाटियां तीर्थयात्रियों के चित को आकर्षित करती हैं। मंदिर से मनसुलु, हिमचुल एंव अन्नपूर्णा की दुग्ध धवल हिमचोटियों के दृश्यावलोकन से प्रकृति प्रेमी व तीर्थयात्री प्रसन्नचित हुए बिना नहीं रह पाते।

देवात्मा हिमालय कि सुरमई वादियाँ 

एक प्राचीन दंतकथा के अनुसार 16वीं शताब्दी में यहाँ एक गोरखा राजा रामशाह राज करता था, उसकी रानी के पास अनेक आलौकिक शक्तियाँ थी,जिसे थापा वंशज बकाराम का रहने वाला एक महा सिद्ध योगी लखनथापा ही जानता था। बाबा गौरखनाथ जी से सिद्धि प्राप्त लखनथापा रानी का अनन्ये भक्त था। एक दिन राजा ने रानी को देवताओं के समक्ष बैठे देखा, तभी एक आकाशवाणी हुई कि "हे राजन तुम्हें मेरी शक्तियों का ज्ञान होई गया है जिस कारण अब तुम राजा नहीं रहोगे। तुम्हारी आने वाली पीढ़ियों मे से कोई यहाँ राज करेगा"। ये आकाशवाणी तब सत्य हुई जब राजा ज्ञानेन्द्र के पूर्वज पृथ्वी नारायण शाह ने सम्पूर्ण  नेपाल राज्य को एकजुट कर उस पर अधिपत्य स्थापित किया। जब रामशाह की मृत्यु हुई तो उनका दाह संस्कार दोरान्दी व मनोकामना नदी के संगम पर किया गया। तब प्राचीन परंपरा के अनुसार रानी भी सती हुई। माँ के अनन्ये भक्त लखनथापा को जब यह पता चला तो वो बहुत दुखी हुआ, तब माँ ने उसके स्वप्न मे दर्शन देकर कहा कि मैं जल्द ही तुम्हारी इच्छा के अनुरूप प्रकट होऊँगी। कुछ महीनों बाद जब एक किसान अपना खेत जोत रहा था तो वहाँ से एक पत्थर निकला जिसमे से खून व दूध की धारा बह रही थी। लखनथापा को जब यह पता चला तो उसने वहाँ जाकर अपनी भक्ति एंव तांत्रिक शक्तियों से उस धारा को रोक दिया। लखन ने वहाँ एक सुंदर मंदिर का निर्माण किया। माँ अपने भक्त की इच्छा के अनुरूप प्रकट हुई थी जिस कारण इस स्थान का नाम मनोकामना देवी पड़ गया। भक्तों की मनोकामना पूर्ण करने वाली भगवती माँ पार्वती का ही स्वरूप हैं।

रोप वे 

तीर्थयात्री केबल कार से उतरने के बाद मंदिर बाज़ार से होते हुए ऊपर चोटी पर पहुँच कर माँ के पिंडी रूप के दर्शन करते हैं। इस मंदिर का अनेक बार जर्नौद्दार हुआ है और आज यह मंदिर काले पत्थरों के विशाल चबूतरे पर पगौड़ा शैली मे निर्मित है। चार मंज़िला इस मंदिर की दो छतें हैं,जोकि कारिगिरी के बेजोड़ नमूने को दर्शाती है। मंदिर के मुख्य द्वार पर बहुत ही सुंदर नक्काशी की गई है। मंदिर के पश्चिम की ओर दो अति प्राचीन वृक्ष हैं व दक्षिण पश्चिम की तरफ एक चकौर चबूतरा है,जहाँ नेपाली तीर्थयात्री भेड़-बकरियों की बलि देते हैं। वर्ष में एक बार यहाँ भव्य मेले का आयोजन होता है,जिसमे सम्पूर्ण विश्व से तीर्थयात्री भाग लेते हैं और माँ मनोकामना देवी के दर्शन कर पुण्य लाभ पाते हैं। आज भी मंदिर के मुख्य पुजारी लखनथापा के 17वें वंशज हैं।   

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