Saturday 28 January 2017

विश्व का सार्वधिक ऊँचाई पर स्थित शिव मंदिर : तुंगनाथ 

तृतीय केदार श्री तुंगनाथ मन्दिर  

मनुष्य का मन कभी भी स्थिर नहीं रहता। नये नये स्थानों को देखने की अभिलाषा सदैव ही इंसान को घुमक्कड़ी के लिए प्रेरित करती है। चाहे तीर्थयात्रा हो या पर्यटन मनुष्य का मकसद मन की शान्ति प्राप्त करना होता है। मन की इसी शान्ति को प्राप्त करने के लिए हम आपको आज लिए चलते हैं विश्व के सबसे ऊँचाई पर स्थित मंदिर तुंगनाथ की ओर। 

ऊखीमठ-चोपता मोटर मार्ग 

ऊखीमठ गोपेश्वर मोटर मार्ग पर स्थित चोपता से लगभग 4 किमी. की दूरी पर स्थित है तृतीय केदार "श्री तुंगनाथ जी"। उत्तरांचल के मिनी स्विट्ज़रलैंड के नाम से विख्यात चोपता एक लोकप्रिय पर्यटन स्थल है। यहाँ के हरे-भरे घास के मैदान जिन्हे बुग्याल कहा जाता है यात्रियो को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। यहाँ यात्रियो के रहने के लिए गढ़वाल मण्डल विकास निगम का विश्राम ग्रह,होटल व अच्छे लॉज उपलब्ध हैं। पर्यटन की दृष्टि से जो लोग 1-2 दिन यहाँ रहना चाहें उनके लिए आस-पास कई दर्शनीय स्थल हैं। हिमालय की मीलों फैली हरी-भरी घाटियों मे एक ऐसा आकर्षण है कि घुमक्कड़ लोग बार बार यहाँ आने को लालायित रहते हैं। उत्तरांचल मे स्थित पंच केदारों मे तृतीय केदार के रूप मे पूज्यनीय श्री तुंगनाथ जी ही एक ऐसा स्थान है जहाँ पहुँचने के लिए सबसे कम केवल 4 किमी. का पैदल मार्ग तय करना होता है। पहाड़ी पत्थरों से बना यह मार्ग काफी सुविधाजनक है।

घोड़े पर सवार तुंगनाथ जाते तीर्थयात्री 

पैदल चलने मे असमर्थ तीर्थयात्री तुंगनाथ तक घोड़े भी कर सकते हैं। ये घोड़ेवाले 5-6 घंटे मे तीर्थयात्रियों को तुंगनाथ दर्शन करवाकर वापसी चोपता ले आते हैं। चार धाम यात्रा के समय काफी संख्या मे तीर्थयात्री चोपता मे अपने वाहन खड़े कर इन घोड़ेवालों की सहायता से तुंगनाथ दर्शन करते हैं तथा वापसी चोपता आकर अपनी आगे की यात्रा पुनः आरम्भ करते हैं। मुख्य सड़क मार्ग से थोड़ा आगे बढ़ने पर बुरास के वृक्षों से घिरा वन आरम्भ हो जाता है। यात्री फूलती हुई साँस के साथ प्रकृति का आनंद उठाते हुए तुंगनाथ जी की ओर बढ़ते हैं। लगभग 1-2 किमी. आगे बढ़ने पर बाईं ओर एक हरा-भरा घास का मैदान है। यहाँ खड़े होकर दूर दूर तक जिस तरफ दृष्टि डालो हरे भरे वृक्षो से आछन्दित घाटियाँ ही नजर आती हैं। यहाँ के बुगयालों मे आस पास के स्थानीय निवासी भी एक दिन की पिकनिक मनाने आते हैं। मार्ग मे कई स्थानों पर झोपड़ीनुमा दुकाने हैं जहाँ रुककर यात्री जलपान करते हैं तथा मैगी के शौकीन लोग इन दुकानों मे माउंटेन मैगी का लुल्फ भी उठाते हैं। 


गर्मा गर्म मैगी का लुत्फ उठाते बच्चे 

जलपान और कुछ विश्राम करने के उपरान्त तीर्थयात्री लगभग एक डेढ़ घंटे मे तुंगनाथ जी पहुँच जाते हैं। समुन्द्रतल से लगभग 3750 मीटर की ऊँचाई पर स्थित श्री तुंगनाथ मंदिर तृतीय केदार के रूप मे पूज्यनीय है। भक्तों द्वारा इस पावन स्थान पर भगवान आशुतोष शिव के बाहु रूप की पूजा की जाती है। तुंग शब्द का अर्थ है सबसे ऊँचा। यह मंदिर भगवान शिव के सभी मंदिरों मे सबसे अधिक ऊँचाई पर स्थित होने के कारण ही तुंगनाथ के नाम से प्रसिद्ध है। जनमान्यता है कि पंच पाँडवों ने इस मंदिर का निर्माण करवाया था। बड़े बड़े पत्थरों को तराश कर बनाया गया यह मंदिर लगभग 36 फुट ऊँचा है। धर्म ग्रन्थों के अनुसार सप्त ऋषियों ने इस क्षेत्र मे कठोर तपस्या द्वारा भगवान शिव को प्रसन्न किया था। इसी वजह से मंदिर के बाईं ओर स्थित सप्त ऋषि कुंड के जल को अत्यंत पवित्र माना जाता है। लगभग 25-30 सीढ़ियाँ चढ़कर मुख्य तुंगनाथ मंदिर स्थित है। यहाँ पर तीर्थयात्रियों को उदक कुंड के दर्शन होते हैं। यहाँ से भक्तजन जल लेकर मंदिर के गर्भ ग्रह मे प्रवेश करते हैं। 


तुंगनाथ मन्दिर का प्रवेश द्वार  

मंदिर के भीतर एक फुट ऊँचे पिंडाकार शिवलिंग की पूजार्चना भक्तों द्वारा बड़े ही श्रद्धा भाव से की जाती है। अपनी स्वर्गारोहण यात्रा के समय पाण्डव पुत्रों ने इस मंदिर का निर्माण किया था जिस कारण मन्दिर परिसर मे कुन्ती एंव द्रौपदी सहित पांचो पांडवों की मूर्तियाँ स्थापित हैं। मन्दिर के ठीक सामने नंदीगण की छोटी सी मूर्ति प्रतिष्ठित है। दायीं ओर स्थित एक छोटे से मन्दिर मे माँ पार्वती की अत्यन्त प्राचीन मूर्ति स्थापित है। शहरों की भीड़ भाड़ से कोसों दूर इस शान्त एकान्त स्थान पर पहुँच कर तीर्थयात्रियों एंव सैलानियों को स्वर्गिक अनुभूति होती है। शीतकाल मे इस सम्पूर्ण क्षेत्र के बर्फ से ढक जाने पर भगवान तुंगेश्वर महादेव की पूजार्चना चोपता से लगभग 10 किमी. दूर मक्कू मठ गाँव मे मिठानी ब्राह्मणो द्वारा की जाती है। तुंगनाथ मन्दिर से लगभग डेढ़ किमी. की खड़ी चड़ाई चढ़ने के पश्चात चन्द्र्शिला नामक स्थान आता हैं, जिसे मून रॉक भी कहा जाता है। जनमान्यता है कि प्रभु श्री राम ने रावण वध के पश्चात भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए इसी स्थान पर कठोर तप किया था। यहाँ एक नवनिर्मित मन्दिर स्थापित है जिसमे भगवान श्री राम की मूर्ति शोभायमान है। चन्द्र्शिला से नन्दा देवी, पंचचूली,द्रोणांचल , बद्रीनाथ,रुद्रनाथ, चौखम्बा आदि अनेक दुग्ध धवल मनोरम चोटियाँ दृष्टिगोचर होती है।

नागधिराज हिमालय की बर्फीली चोटियाँ 

मनुष्य का प्रकृति से साक्षात्कार कराता यह स्थान ईश्वर की अनूठी देन  है। तुंगनाथ पहुँचने के लिए दो मार्ग उपलब्ध हैं। प्रथम मार्ग द्वारा यात्री राष्ट्रीय राजमार्ग 58 से होते हुए ऋषिकेश, गोपेश्वर होकर चोपता पहुँच सकते हैं जोकि लगभग 250 किमी. है। द्वितीय मार्ग ऋषिकेश से ऊखीमठ होकर चोपता पहुंचता है जोकि लगभग 215 किमी. है। 


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Tuesday 17 January 2017

                  

                           भू-बैकुंठ का धाम  :  गौमुख 

गौमुख ग्लेशियर 

देवनदी गंगा जिसके उदगम स्थल की यात्रा निःसन्देह एक आलौकिक आनन्द की अनुभूति कराती है। भू बैकुंठ के इस स्वर्ग की यात्रा प्रत्येक हिन्दू के लिए अत्यंत कल्याणकारी होती है। विदेशी सैलानी एंव भारतीय पर्यटक भी इस यात्रा के सुअवसर से वंचित नहीं रहना चाहते। बर्फ के ग्लेशियर से जब गंगा जी की पावन धारा निकलती है तब ऐसा प्रतीत होता है,मानो देवाधिदेव महादेव शिवजी की जटाओं से पतितपावनी गंगा जी प्रकट हो रही हैं। हिन्दू जनमानस गौमुख की इस दुर्लभ एंव दुर्गम महायात्रा पर जाने के लिए सदा लालायित रहता है। गंगोत्री से गौमुख का पैदल मार्ग लगभग 18किमी. का है। इस यात्रा मे जाने वाले तीर्थयात्रियों व पर्यटकों को सर्वप्रथम उत्तराखंड राज्य के उत्तरकाशी शहर पहुँचना होता है। यहाँ से सीधे सड़क मार्ग द्वारा गंगोत्री पहुँचा जाता है।

गंगोत्री स्थित माँ गंगा मन्दिर 

उत्तराखंड के चार धामों मे से एक गंगोत्री धाम अत्यन्त पूज्यनीय है। गंगोत्री धाम से कुछ दूर चलने पर वन विभाग की चौकी है। यहाँ प्रत्येक तीर्थयात्री एंव पर्यटक को अपना रजिस्ट्रेशन करवा कर आगे बढ़ना चाहिए। पतितपावनी माँ भागीरथी के साथ साथ तीर्थयात्री आगे की ओर बढ़ते हैं। घने वृक्षों वाले इस मार्ग के मध्य से होते हुए आगे बढ़ना अत्यन्त रोमांचकारी प्रतीत होता है। थोड़ा आगे बढ़ने पर अत्यन्त तीव्र वेग से पहाड़ों को चीरता हुआ स्वच्छ निर्मल जल का झरना नीचे की ओर आता है। इस जलधारा को पार करने के लिए चीड़ के वृक्षों से बने दो तख्ते लगाये गए हैं जिन्हे पार करना काफी कठिन कार्य है। कमजोर दिल के व्यक्ति झरनों की इस धारा को देखकर घबरा जाते हैं तथा आगे बढ़ने का साहस नहीं कर पाते,मजबूत इरादे वाले व्यक्ति ही आगे जा पाते हैं।

तीव्र जलधारा को पार करते हुए लेखक 

यहाँ से आगे बढ़ने पर चीड़ के घने वृक्षों वाला वन आरम्भ हो जाता है। मार्ग के दोनों ओर खड़े हिमशिखर मानो आने वाले यात्रियो का स्वागत करते हैं। स्वर्ग तुल्य इस भूमि के पग पग पर फैली हरियाली एंव माँ भागीरथी की अत्यन्त मनोरम ध्वनि यात्रियो के चित को आकर्षित करती है। चिड़वासा से पूर्व यात्रियो को एक बार पुनः पहाड़ी झरने को पार करने के लिए लकड़ी के दो तख्तों पर से गुजरना पड़ता है। गंगोत्री से चिड़वासा की दूरी लगभग 8किमी. की है। चीड़ के घने वृक्षों के मध्य स्थित यह अत्यन्त मनोरम स्थान है। यात्रियो के लिए यहाँ खाने पीने की 10-15 झोपड़ीनुमा दुकाने बनी हैं। यहाँ के दुकानदार यात्रियो को रात्री विश्राम के लिए बहुत कम शुल्क मे रज़ाई एंव गद्दे उपलब्ध करवा देते हैं।

झोपड़ीनुमा दुकान  के बाहर विश्राम करते यात्री 

यहाँ  से आगे खड़ी चड़ाई वाला मार्ग आरम्भ हो जाता है। यात्री एंव पर्यटक फूलती हुई सांस के साथ धीरे धीरे आगे बढ़ते है। चिड़वासा से आगे भागीरथी के दोनों किनारों पर नैलंग एंव भृगुपंथ शिखर खड़े मिलते हैं। ब्रह्म महूर्त मे सूर्य की पहली किरण पड़ने पर इन पर्वत शिखरों की आभा अत्यन्त मनोहारी हो जाती है जिन्हे देखकर ऐसा प्रतीत होता है मानो सूर्य की किरणें इन पर्वत शिखरों का शृंगार कर रही है। स्वर्णिम प्रतीत होते ये शिखर किसी भी यात्री को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए पूर्ण रूप से सक्षम हैं। इस मार्ग मे तीर्थयात्रियों के अलावा काफी संख्या मे विदेशी पर्यटक भी मिलते हैं। भारतीय संस्कृति एंव देवात्मा हिमालय को देखने की उनकी अभिलाषा किसी भी प्रकार से कम नहीं होती। यहाँ  से थोड़ा आगे बढ़ने पर एक स्थान पर कच्चा पहाड़ है जिससे  निरन्तर छोटे छोटे पत्थर मार्ग मे गिरते रहते हैं। यात्रियो को अत्याधिक सावधानी पूर्वक इस मार्ग को तय करना चाहिए। 

पथरीला पहाड़ी मार्ग 

ऑक्सिजन की कमी के कारण यहाँ प्राय: यात्रियो की सांस फूलती है। उन्हे अपने साथी टॉफी,ग्लूकौस,पानी इत्यादि सदैव अपने पास रखना चाहिए। थोड़ा आगे बढ़ने पर भोज के वृक्षों वाला वन आरम्भ हो जाता है। इस स्थान को भोजवासा कहा जाता है। चिड़वासा से भोजवासा लगभग 4किमी. की दूरी पर स्थित है। प्राचीन काल मे इन्ही भोज वृक्षो के पत्तों पर लिखने का कार्य सम्पन्न होता था जिस कारण इन वृक्षो को अत्यन्त पवित्र माना जाता है। भोजवासा के वृक्षो की अधिकता होने के कारण इस क्षेत्र को भोजवासा कहा गया है। गौमुख मे रात्रि विश्राम की व्यवस्था न होने के कारण यात्री गौमुख दर्शनोपरांत पुनः भोजवासा लोटकर रात्रि विश्राम करते हैं। यात्रियो की सुविधा के लिए यहाँ घाटी मे लाल बाबा आश्रम एंव गढ़वाल मण्डल विकास निगम का एक रेस्ट हाउस निर्मित है। चिड़वासा की भाँति यहाँ भी खाने पीने एंव रात्रि विश्राम के लिए झोपड़ीनुमा दुकाने उपलब्ध हैं। 

मार्ग मे विश्राम करते यात्री 

इस क्षेत्र मे विभिन्न प्रकार के पक्षियों का करलव मन मोह लेता है। यहाँ कस्तूरी मृग भी अत्यधिक संख्या में पाये जाते हैं। शहरों के प्रदूषित वातावरण से मीलों दूर इस निर्जन एकांत  स्थान की अलौकिक शान्ति को वर्णित नहीं केवल महसूस किया जा सकता है। यहाँ का शांत एकान्त वातावरण निःसन्देह किसी भी मनुष्य के लिए स्वर्गतुल्य है।

हिमछिंदित चोटियाँ  

भोजवासा से ही मनोहारी हिमछिंदित भागीरथी एंव शिवलिंग शिखरों के दर्शन होते हैं। भोजवासा से गौमुख ग्लेशियर लगभग 6किमी. दूर है। यहाँ से आगे का मार्ग बेहद कठिन है। बड़े बड़े पत्थरों को पार कर तीर्थयात्रियों को आगे बढ़ना होता है। समुन्द्र तल से यह स्थान काफी ऊँचाई पर स्थित है। जिस कारण ऑक्सिजन की कमी होने से कुछ यात्रियो को सांस की तकलीफ का सामना करना पड़ता है। जब सूरज की प्रथम किरणें हिमशिखरों पर पड़ती हैं तो ऐसा प्रतीत होता है मानो सूर्य देव इन हिमशिखरों का स्वर्णिम शृंगार कर रहे हों। पत्थरों वाले मार्ग से नीचे उतरकर यात्री एक बड़े से मैदान मे पहुँच जाते हैं। तीर्थयात्रियों को धरती पर सर्वप्रथम यहीं से ही स्वर्ग की देवी गंगा जी के दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त होता है। यही वह अलौकिक स्थान है जहाँ पतित पावनी गंगा मैया का तीव्र वेग से बहता हुआ निर्मल जल गौमुख ग्लेशियर से बाहर निकलता है। यहाँ गंगा मैया एक विशाल बर्फ की गुफा से निकलती हैं।

गोमुख से निकलती माँ भागीरथी की तीव्र धारा

समुन्द्र तल से लगभग 4220 मीटर की ऊँचाई पर स्थित यह स्थान मोक्षदायनी गंगा मैया का उदगम स्थल है। बर्फ के ग्लेशियर से निकलता हुआ ये जल अत्यन्त तीव्र गति से आगे की ओर बढ़ता है। गौ शब्द के दो शाब्दिक अर्थ होते हैं-गाय का मुख तथा पृथ्वी। गंगोत्री ग्लेशियर गाय के मुख की आकृति का है। इसी कारण जब गंगा जी बर्फनुमा गाय के मुख से निकलती हैं तो ऐसा प्रतीत होता है कि मानो गौमुख से निकल रही हों। यह गुफा लगभग 300 फुट ऊँची तथा 100 फुट चौड़ी है। गौमुख ग्लेशियर लगभग 24 किमी. लंबा तथा 2 किमी. चौड़ा है। गुफा के समीप ही गंगाजल मे बर्फ के बड़े बड़े शिलाखंड तैरते हुए दिखते हैं। जब ग्लेशियर से यह शिलाखण्ड  टूटकर भयंकर गर्जना के साथ गंगा जी के जल मे गिरते हैं तब वहाँ खड़े यात्रियो को भय एंव रोमांच का एकसाथ अनुभव होता है। कुछ साहसी तीर्थयात्री माँ भागीरथी के इस बर्फीले जल मे स्नान करने के उपरांत वहीं पास ही बने एक अस्थाई मंदिर मे पूजार्चना करते हैं। श्रावण मास मे यहाँ शिवभक्त कावड़ियों का मेला लगता हैं। कावड़िए गंगा जी के उदगम स्थल से अपनी कावड़ भरकर विभिन्न शहरों के शिवालयों मे चढ़ाते हैं। इस स्थान पर देवलोक से अवतरित होने वाली पुण्यसलीला माँ भागीरथी की शोभा देखते ही बनती है। करोड़ो भारतवासियों का उद्धार करने के लिए ये पावन जलधारा धरती पर आयी हैं। इस पवित्र स्थान पर यात्रियो को गंगा मैया के प्रथम दर्शनों का पुण्यलाभ प्राप्त होता है जिस कारण यह पवित्र स्थान अत्यन्त पूज्यनीय है। अत्यधिक सौभाग्य शाली मनुष्यों को ही यहाँ आकर अपने जन्म जनमान्तर के पापों से मुक्ति का सुअवसर प्राप्त होता है। गौमुख से आगे नन्दन वन,रक्तवन,तपोवन आदि अनेक ऐसे स्थान हैं जहाँ पहुँचने के लिए अत्यन्त दुर्गम  मार्ग  से होकर जाना पड़ता है। कुछ साहसी यात्री मार्ग की दुर्गमता के बावजूद तपोवन तक पहुँचकर निःसन्देह अपने साहस का परिचय देते हैं। यहाँ के शान्त एकान्त वातावरण के कारण कुछ साधू-सन्यासी ग्रीष्म काल मे यहाँ आकर तपस्या करते हैं।     

गंगोत्री क्षेत्र मे निवास  करते साधू सन्यासी 

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Friday 13 January 2017


   देवलोक की यात्रा : मणि महेश कैलाश

पवित्र मणि महेश कैलाश एंव झील 

विश्व मे भारत ही एकमात्र ऐसा देश है जहाँ कई प्रकार की विविधताएं देखने को मिलती हैं। तीर्थाटन एंव पर्यटन की दृष्टि से यहाँ की हिमछिंदित पर्वत शृंखलाएँ,गहरे समुन्द्र,देवतुल्य नदियाँ,मीलों फैले रेगिस्तान,हरियाली से सराबोर टापू,घने जंगल इत्यादि सभी को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। उत्तर भारत मे स्थित हिमाचल  प्रदेश को देव भूमि के नाम से भी पुकारा जाता है। यहाँ के कई सिद्ध पीठों मे वर्ष भर लाखों की संख्या मे दर्शनार्थी पहुँचते हैं। प्राचीन काल से ही धर्म यात्रायें हमारे जीवन का अभिन्न अंग रही हैं। इन महान यात्राओं के अभिलाषी भक्त बड़े ही श्रद्धा भाव से कई प्रकार के  कष्ट उठाते हुए अपने आराध्य देव के दर्शनों हेतू इन तीर्थस्थलों पर पहुँचते हैं। हिमाचल प्रदेश की इस हरी भरी भूमि पर आकर पर्यटकों एंव तीर्थयात्रियों का मन प्रफुल्लित हो जाता है। मीलों लंबी फैली यहाँ की घाटियाँ,सर्पीले पहाड़ी मार्ग,मधुर संगीत बिखेरते यहाँ के झरने,शांत एकान्त रमणीक स्थान तथा बर्फीली चोटियाँ इस प्रदेश की सुंदरता को कई गुना बड़ा देते हैं।       

हरियाली से सराबोर हिमालय 

इस देवभूमि मे ऐसी ही आलौकिक एंव परम कल्याणकारी धर्म यात्रा है मणि महेश झील एंव कैलाश पर्वत की। हिमाचल के चम्बा जिले मे स्थित इस पवित्र स्थान की यात्रा मे प्रतिवर्ष पंजाब, हरियाणा, जम्मू-कश्मीर, दिल्ली इत्यादि सम्पूर्ण भारत से लाखों की संख्या मे श्रद्धालु सम्मिलित होते हैं। जन्माष्टमी से राधाष्टमी तक लगने वाले इस मेले में पवित्र छड़ी मुबारक के साथ भारी संख्या मे साधू-सन्यासी भी सम्मिलित होते हैं।   

मणि महेश कैलाश की तलहटी पर लेखक 

तीर्थयात्रियों को मणि महेश पहुँचने के लिए सर्वप्रथम राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित पठानकोट शहर पहुँचना होता है। सम्पूर्ण भारत से ये शहर रेल एंव सड़क मार्ग द्वारा जुड़ा हुआ है। पठानकोट के महाराणा प्रताप इंटर स्टेट बस अड्डे से यात्रियो को थोड़े-थोड़े समय के उपरान्त  चम्बा के लिए बस उपलब्ध हो जाती है। पठानकोट का यह बस अड्डा स्वच्छ एंव सुंदर बना हुआ है। यात्री चाहें तो निजी वाहन अथवा टैक्सी द्वारा भी चम्बा पहुँच सकते हैं। पठानकोट से ऊपर पहाड़ी मार्ग आरम्भ हो जाता है। हरियाली से परिपूर्ण सुंदर वादियाँ तीर्थयात्रियों एंव पर्यटकों के मन को मोह लेती हैं। मार्ग घुमावदार होने के कारण यात्रियो को कई बार डर भी लगता है किन्तु मन मे उमंग एंव मुख पर महादेव के जयकारे समस्त बाधाओं को हर लेते हैं। मार्ग मे कई छोटे-छोटे गाँवों  से होकर गुजरना पड़ता है,यह मार्ग सर्पीला होने के साथ साथ आकर्षक भी है। कई बार मार्ग मे कोहरा होने से यात्रियो को ऐसा प्रतीत होता है मानो वे बादलों मे सफर कर रहे हैं। कोहरा छटते ही पुनः हरी भरी वादियाँ नज़र आने लगती हैं। पठानकोट से चम्बा पहाड़ी सड़क मार्ग द्वारा लगभग 122 किमी. की दूरी पर स्थित है। इसी मार्ग पर बैनी खेत से एक मार्ग हिमाचल के सुप्रसिद्ध पर्यटक स्थल डलहोज़ी एंव खजियार को जाता है। मार्ग के दोनों ओर कई छोटे-बड़े ढाबे हैं जहाँ यात्री चाय-नाश्ता एंव भोजन कर सकते हैं। मार्ग की हरियाली को अपनी आखों में समेटते हुए यात्री कब चम्बा पहुँच जाते हैं इसका उन्हे एहसास ही नहीं होता। रावी नदी के किनारे बसा चम्बा शहर समुन्द्र तल से लगभग 996 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। चारों ओर हरियाली से परिपूर्ण पहाड़ों से घिरा यह नगर पुरातत्व एंव धार्मिक दोनों ही दृष्टि से अद्वितीय है। सातवीं शताब्दी मे राजा साहिल वर्मा ने इस शहर को बसाया था। श्री लक्ष्मी नारायण मंदिर चम्बा शहर का मुख्य मंदिर है। यह देवालय छ: मंदिरों का समूह है जिनमे तीन मंदिर भगवान विष्णु जी को तथा तीन मंदिर भगवान शिव को समर्पित हैं। शिखर शैली मे निर्मित इस मन्दिर मे भगवान लक्ष्मी नारायण,राधा-कृष्ण,चन्द्रगुप्त,महादेव शिव,त्र्यंबकेश्वर एंव लक्ष्मी-दामोदर की मूर्तियाँ शोभायमान हैं।  

लक्ष्मी नारायण मंदिर (चम्बा)

लक्ष्मी-नारायण मंदिर के पास ही स्थित है चम्पावत मंदिर। मंदिर के अन्दर नाग देवता की मूर्ति स्थापित है। नाग पंचमी के दिन काफी संख्या में श्रद्धालु यहाँ आकर नाग देवता को नाना प्रकार के व्यंजनों का भोग लगाकर उन्हें प्रसन्न करते हैं। इस दिन ब्रह्म महूर्त से ही मंदिर मे भक्तों का आना आरम्भ हो जाता है। हरे-भरे घास के मैदानो को यहाँ चौगान कहा जाता है। शहर के बीचो बीच चम्बा का मुख्य चौगान है। इसके मुख्य द्वार पर चम्बा शताब्दी मुख्य द्वार लिखा हुआ दिखाई देता है। श्रावण मास मे चम्बा शहर के इस चौगान मे विश्वप्रसिद्ध अंतर्राष्ट्रीय मिंजर मेले का आयोजन किया जाता है। चम्बा मे अन्य कई मंदिर भी दर्शनीय हैं। चम्बा के छोटे से बस अड्डे पर भरमौर जाने के लिए बस सेवा उपलब्ध हो जाती है। उत्तर भारत के विभिन्न शहरों से चम्बा का ये बस अड्डा राज्य परिवहन की  बस सेवा से जुड़ा हुआ है। चम्बा से लगभग 65 किमी. की दूरी पर स्थित है भरमौर। रावी नदी के साथ-साथ मार्ग भरमौर तक पहुँचता है। चम्बा से भरमौर तक का मार्ग कई स्थानों पर बेहद संकीर्ण है। घुमावदार रास्तों से होते हुए यात्री भरमौर पहुँचते हैं।  

अपनी भेड़ों के बीच गद्दी 

समुन्द्र तल से लगभग 2195 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है भरमौर। प्राचीन काल मे इस स्थान को ब्रह्मपुर के नाम से जाना जाता था। हिमाचल का यह जनजातीय क्षेत्र भेड़ बकरी चराने वाले गद्दी लोगों का निवास स्थान है। ग्रीष्मकाल मे यह गद्दी लोग अपनी भेड़ बकरियों को चराने के लिए ऊँचे पहाड़ी क्षेत्रों मे ले जाते हैं। ये गद्दी लोग भगवान शिव को अपना आराध्य देव मानते हैं। इस जन जातीय क्षेत्र के लोग भगवान शिव की कल्पना हुक्का लिए शिव के रूप मे करते हैं। शिव भूमि भरमौर में मणि महेश यात्रा के समय लाखों की संख्या मे श्रद्धालु पहुँचते हैं। जन्माष्टमी से राधाष्टमी तल यहाँ एक भव्य मेले का आयोजन किया जाता है जिसमे भारत के विभिन्न प्रान्तों से शिवभक्त बड़े उत्साह के साथ सम्मिलित होते हैं।     

चौरासी मन्दिर भरमौर 

यहीं शहर के मध्य मे ही स्थित है चौरासी मंदिर। चौरासी का यह विशाल मंदिर अपनी उत्कृष्ट पहाड़ी शैली के कारण श्रद्धालुओं एंव पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र है। इस मंदिर का निर्माण राजा मेरु वर्मा ने लगभग 7वीं शताब्दी मे करवाया था। 

श्री धरमेश्वर महादेव मन्दिर (भरमौर)

मंदिर परिसर मे ही धरमेश्वर महादेव मंदिर स्थित है। मंदिर मे एक विशाल शिवलिंग स्थापित है। पुजारी जी शिवलिंग का बड़ा ही सुन्दर शृंगार करते हैं। यहीं साथ ही मे चित्रगुप्त का भी स्थान है तथा पास ही अर्धगंगा कुंड भी है। मंदिर परिसर मे ही एक ओर ब्राह्मणी माता के चिन्ह दिखाई देते हैं। यहीं पास ही लखना माता का मंदिर है। अखरोट की लकड़ी से बना यह मंदिर हिमाचल की विशिष्ट कारीगिरी का नमूना है। मंदिर की बेजोड़ नक्काशी देखने योग्य है। इस मंदिर समूह के बीच यहाँ का प्रमुख शिव मंदिर स्थित है। एक बड़े से चबूतरे पर निर्मित इस मंदिर के अन्दर मुख्य शिवलिंग स्थापित है। शिखर शैली मे बने इस मंदिर मे भक्तजन बड़े ही श्रद्धा भाव से पूजार्चना करते हैं। तीर्थयात्री महादेव के आगे शीश नवाकर अपनी मणि महेश कैलाश यात्रा के निर्विघ्न सम्पन्न होने की कामना करते हैं। कुछ भक्त मंदिर प्रांगण मे यज्ञ एंव पूजा के द्वारा भगवान शिव को प्रसन्न कर मनवांछित फल प्राप्त करते हैं।

मेला मणि महेश 

मेले के दौरान मंदिर परिसर मे ही "गूर" बैठे मिलते हैं। पृथ्वी पर भगवान शिव के दूत माने जाने वाले इन गूरों के प्रति भक्तों की अपार श्रद्धा देखने को यहाँ मिलती है। स्थानीय लोग इनसे अपनी समस्याओं का समाधान पूछते हैं। राधाष्टमी के दिन मणि महेश झील पर पर्व आरम्भ होने पर केवल ये गूर ही झील के बर्फ समान ठंडे जल को पार करते हैं। जो व्यक्ति इन्हे सबसे पहले छू लेता है उनके प्रश्नों का उत्तर ये सबसे पहले देते हैं। यह परम्परा प्राचीन काल से चली आ रही है। मुख्य मंदिर के सामने पीतल से बनी 5 फुट ऊँची नंदी बैल की प्रतिमा प्रतिष्ठित है। कुछ श्रद्धालु नंदी जी के पैरों के बीच मे से लेटकर निकलते हैं,उनका विश्वास है कि ऐसा करने से उन्हे मनुष्य योनी मे दोबारा नहीं आना पड़ेगा। चौरासी मंदिर समूह मे ही छोटे से मन्दिर के भीतर संगमरमर से बनी जय श्री कृष्ण गिरी महाराज की मनोहारी मूर्ति स्थापित है।यह स्थान इन महान तपस्वी जी की तपोभूमि रही है। मणि महेश यात्रा के दोरान मन्दिर परिसर मे ही लगने वाले छोटे से बाज़ार मे सभी प्रकार की धार्मिक वस्तुएँ उपलब्ध हो जाती हैं। तीर्थयात्री धार्मिक पुस्तकें,यात्रा डी. वी. डी., प्रसाद इत्यादि यहीं से खरीदकर अपने घरों को ले जाते हैं। बाज़ार मे खाने पीने के भी स्टॉल लगे होते हैं। मणि महेश यात्रा के समय मौसम खराब होने की आशंका सदैव बनी रहती है। किसी भी समय बर्फबारी अथवा वर्षा आरम्भ हो जाती है,इसलिए तीर्थयात्रियों को अपने साथ रेन कोट,छाता,टॉर्च तथा गर्म ऊनी वस्त्र इत्यादि आवश्यक सामग्री सदैव अपने पास रखनी चाहिए। तीर्थयात्रियों को यात्रा मे उपयोग होने वाली सभी सामग्री यहीं से लेकर आगे बढ़ना चाहिए। रात्रि के समय मन्दिर परिसर का सम्पूर्ण क्षेत्र बिजली की रोशनी से जगमगा उठता है। 

ब्रह्मानी देवी मन्दिर 

शहर से थोड़ी ऊँचाई पर माँ ब्रह्मानी देवी का मन्दिर स्थित है। मन्दिर तक पहुँचने के लिए दो मार्ग उपलब्ध हैं। प्रथम पैदल मार्ग लगभग एक-डेढ किलोमीटर खड़ी चड़ाई वाला है जबकि दूसरे मार्ग से यात्री लगभग 5-6 किमी. का मार्ग जीप द्वारा भी तय कर सकते हैं। खड़ी चड़ाई वाला मार्ग भरमौर शहर के बीच से होता हुआ मन्दिर तक पहुँचता है। तीर्थयात्री फूलती हुई साँस के साथ धीरे धीरे मन्दिर की ओर बढ़ते हैं। भरमौर क्षेत्र मे सेबों व राजमा की खेती होती है। सेबों से लदे वृक्ष इस क्षेत्र की सुंदरता को कई गुना बड़ा देते हैं। गाँव की महिलाएं राजमा साफ करके नीचे मैदानी क्षेत्रों मे बेचने के लिए भेजती हैं। मेले के दौरान स्वयं सेवी संस्थाओं द्वारा लगाये गये भंडारों मे भोजन का आनन्द  ही कुछ और होता है। तीर्थयात्री फूलती हुई साँस के साथ जयकारे लगाते  हुए ब्रह्मानी  देवी मन्दिर पहुँच जाते हैं। एक प्राचीन दंत कथा के अनुसार माँ ब्रह्मानी देवी चौरासी मन्दिर क्षेत्र मे ही निवास करती थी। एक बार भगवान शिव भ्रमण करते हुए यहाँ आये और उन्होने इस क्षेत्र मे अपनी धुनि रमा दी। जिससे रुष्ट होकर माँ इस शिखर पर आ गईं। तब महादेव शिव ने उन्हे प्रसन्न करने हेतु वरदान दिया कि मणि महेश की यात्रा मे मुझसे पहले तुम्हारे दर्शन करने वाले भक्तों को ही यात्रा का सम्पूर्ण फल प्राप्त होगा। भक्तजन मन्दिर पहुँचकर सर्वप्रथम यहाँ स्थित एक छोटे से कुण्ड के जल मे स्नान करते हैं। ये उनकी अपार श्रद्धा एंव विश्वास ही है जो उन्हे इतने बर्फीले जल मे स्नान करने को प्रेरित करता है। स्नान के उपरान्त भक्त लाल चुनरी एंव पूजन सामग्री के साथ पूजार्चना करके माँ का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। 

पवित्र छड़ी मुबारक 

मणि महेश यात्रा की पवित्र छड़ी मुबारक चम्बा शहर के चरपट मोहल्ले मे स्थित चरपट नाथ मन्दिर से आरंभ होकर विभिन्न पड़ावों पर विश्राम करती हुई राधाष्टमी से दो दिन पूर्व भरमौर के चौरासी मन्दिर पहुँचती है। इस छड़ी यात्रा मे चरपट मन्दिर के पुजारी छड़ी लेकर चलते हैं। उनके साथ इस महायात्रा मे दसनामी अखाड़े के कई साधू सन्यासी भी सम्मिलित होते हैं। अगले दिन प्रातः काल छड़ी की विधिवत पूजार्चना के पश्चात साधू सन्यासी व अन्य भक्तजन पुनः एकत्रित होकर पैदल ही हडसर की ओर बढ़ते हैं। पैदल चलने मे असमर्थ लोग 17 किमी. का मार्ग मोटर वाहन द्वारा तय करते हैं। भरमौर से आगे का मार्ग काफी संकरा होने के कारण कई बार आमने सामने से वाहन आने पर बड़ी ही सावधानीपूर्वक वाहनों को आगे बढ़ाना होता है। मणि महेश यात्रा का अंतिम मोटर मार्ग हडसर एक छोटा सा गाँव है।

                                                       

मोटर मार्ग 

यहाँ से मणि महेश तक 13 किमी. का सम्पूर्ण पैदल मार्ग कठिन एंव पथरीला है। हडसर मे भी कई स्वयं सेवी संस्थाएँ तीर्थयात्रियों के लिए भंडारे का आयोजन करती हैं। तीर्थयात्री हडसर से अपनी पैदल यात्रा आरम्भ कर धनछौ की ओर बढ़ते हैं। हडसर से धनछौ की दूरी लगभग 6 किमी. है। खड़ी चड़ाई वाले इस मार्ग पर तीर्थयात्री हर-हर,बम-बम के जयकारे लगाते हुए धीरे धीरे आगे बढ़ते हैं। पैदल चलने मे असमर्थ तीर्थयात्री हडसर से ही घोड़ों पर अपनी यात्रा आरम्भ करते हैं। गगनचुंबी शिखरों के मध्य से होते हुए ये पैदल मार्ग प्राकृतिक हरियाली से परिपूर्ण है। मार्ग मे जिस ओर दृष्टि डालो हरियाली ही हरियाली ही दिखाई देती है। मणि महेश तीर्थ यात्रा मे कई बहुमूल्य छोटी छोटी वनस्पतियाँ पायी जाती हैं। मार्ग मे बहने वाले झरने यात्रा की सुंदरता को कई गुना बड़ा देते हैं। महादेव शिव की भूमि मे यात्रा करते हुए तीर्थयात्रियों को स्वर्गारोहण का एहसास होता है। मार्ग मे जगह जगह लगे हुए भंडारों मे स्वयं सेवक बड़े ही प्रेम से तीर्थयात्रियों को भोजन एंव जलपान कराते हैं।     प्राचीनकाल से ही भारत की संस्कृति रही है कि स्वयं भोजन करने से पहले दूसरों को भी भोजन कराना चाहिए। भोजन एंव कुछ देर विश्राम के उपरान्त यात्री पुनः धनछौ की ओर बढ़ते हैं। कुछ तीर्थयात्री मार्ग मे बहने वाले स्वच्छ जल के झरने मे स्नान का आनन्द उठाते हैं। शीतल जल मे स्नान करने से यात्रा मार्ग की सारी थकान स्वयं ही दूर हो जाती है। यात्री स्नान के उपरान्त दोगुने जोश के साथ पुनः आगे की यात्रा आरंभ करते हैं। इतनी ऊँचाई वाले मार्ग पर यात्रा करते हुए कई बार यात्रियो का स्वास्थ बिगड़ जाता है। कुछ स्वयं सेवी संस्थाएं ऐसे यात्रियो को निशुल्क दवाइयाँ एंव डॉक्टरी सुविधा उपलब्ध कराती हैं। किन्तु फिर भी तीर्थयात्रियों को दैनिक प्रयोग मे आने वाली दवाइयाँ अपने साथ अवश्य रखनी चाहिये। धनछौ के छोटे से पड़ाव पर तीर्थयात्रियों के रात्री विश्राम के लिए टेंट उपलब्ध हैं। यहाँ कुछ छोटी दुकानों मे यात्रियो के रहने एंव खाने पीने की व्यवस्था हो जाती है। हिमाचल टूरिज़म द्वारा भी यहाँ छोटे छोटे टेंट लगाये जाते हैं जहाँ तीर्थयात्री शुल्क देकर रात्री विश्राम कर सकते हैं। धनछौ मे बहने वाला झरना अत्यन्त मनोहारी है। तीर्थयात्री रात्री विश्राम के पश्चात मणि  महेश के लिए अपनी यात्रा पुनः आरम्भ करते हैं।   


धनछौ पड़ाव 

धनछौ से मणि महेश के लिए दो मार्ग उपलब्ध हैं। भैरो घाटी एंव बंदर घाटी। प्रायः तीर्थयात्री भैरो घाटी मार्ग से ही अपनी यात्रा सम्पन्न करते हैं। बंदर घाटी मार्ग अत्यन्त दुर्गम एंव कठिन है। तीर्थयात्री शिव जयकारे एंव सुन्दर सुन्दर भजन गाते हुए  मार्ग मे अनेक घुमावदार मोड़ो एंव संकरे मार्गो से धीरे धीरे आगे बढ़ते रहते है। पहाड़ो की ऊँचाई के साथ साथ यात्रियो की साँस फूलने लगती है। किन्तु इन सब कठिनाइयो के बावजूद महादेव के दर्शनों की अभिलाषा उन्हे निरन्तर आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती है। मार्ग मे एक स्थान पर पहाड़ के भीतर से जल की आवाज सुनाई देती है किन्तु जल दिखाई नहीं देता। इस स्थान को शिव की घराट कहा जाता है। मणि महेश झील से लगभग 1 किमी. पहले गौरीकुण्ड नामक स्थान है जहाँ केवल महिलायें ही स्नान करती हैं। यहाँ से आगे का मार्ग खड़ी चड़ाई वाला है।    

मार्ग मे सुन्दर झरने का नज़ारा 

समुन्द्र तल से लगभग 13500 फुट की ऊँचाई पर स्थित मणि महेश झील हिन्दू जनमानस के लिए अत्यन्त पूज्यनीय स्थान है। यह घाटी चारों ओर बड़े बड़े पत्थरों से घिरी हुई है। इस पवित्र झील का घेरा लगभग 400 फुट का है। मणि महेश की बर्फीली घाटी मे पहुंचते ही तीर्थयात्रियों का तन एंव मन अपार श्रद्धा से भर जाता है। उन्हे विश्वास ही नहीं होता कि  इतने कठिन पहाड़ी मार्ग को पार कर वह कैसे यहाँ तक पहुँच पाये हैं। मणि महेश झील के ठीक सामने स्थित कैलाश पर्वत के दर्शन पाकर भक्तजन अत्यन्त भाव विभोर हो जाते हैं। महादेव कैलाशपति की पावन भूमि के स्पर्श मात्र से ही उनका रोम-रोम पुलकित हो जाता है। इस घाटी मे पहुँचकर सच मे ऐसा लगता है कि "शिव कैलासों के वासी : धौलीधारों के स्वामी संकर-संकट हरणा"। 

           

 मणि महेश कैलाश की तलहटी पर आवास व्यवस्था 

सूर्य की प्रथम किरण पड़ते ही पवित्र कैलाश पर्वत मणि के समान चमक उठता है। शायद इसी लिए ही इस पवित्र पर्वत को मणि महेश कैलाश कहा गया है। मणि महेश पर्वत पर मानव आकृति की दो खड़ी चट्टानें दिखाई देती हैं। जनमान्यता के अनुसार इनमे से एक छवि साधू की तथा दूसरी छवि एक चरवाहे की है। दोनों ने ही कैलाश पर्वत पर चढ़ने का प्रयत्न किया जिस कारण देव प्रकोप से वे चट्टान बन गए। कैलाश पर्वत की चोटी पर बर्फ एंव वर्षा के कारण प्रायः धुंध छाई रहती है। सम्पूर्ण घाटी का दृश्य अलौकिक एंव पूज्यनीय है।     

पवित्र मणि महेश झील 

तीर्थयात्री यहाँ पहुँचकर सर्वप्रथम  मणि महेश झील मे स्नान कर अपने तन एंव आत्मा को शुद्ध बनाते हैं। जिस बर्फीले जल मे एक डुबकी लगाना भी अत्यन्त कठिन कार्य होता है उसमे श्रद्धालुजन अपना सम्पूर्ण साहस बटोरकर हर-हर महादेव का जाप करते हुए एक साथ कई डुबकियाँ लगा लेते हैं। प्रतिवर्ष जन्माष्टमी से राधाष्टमी तक लाखों की संख्या मे भक्त यहाँ पहुँचकर इस पवित्र झील मे स्नान कर मणि महेश कैलाश के दर्शन करते हैं। राधाष्टमी के दिन सिद्धि आरम्भ होने पर झील का जलस्तर स्वयं बढ़ने लगता है। सिद्धि के समाप्त होने पर जलस्तर पुनः वापसी अपने स्थान पर पहुँच जाता है। हिन्दू जनमानस की ये प्रबल आस्था रही है कि जहाँ देवाधिदेव महादेव साक्षात निवास करते हैं वहाँ किसी मन्दिर की आवश्यकता ही नहीं है। इसलिए मणि महेश कैलाश की तलहटी पर कोई भी पक्का मन्दिर नहीं है।

प्राचीन त्रिशूल 

झील के पास ही खुले आकाश के नीचे एक शिवलिंग स्थापित है जिसके चारों ओर हज़ारो वर्ष पुराने त्रिशूल गढ़े हुए हैं। भक्तजन शिवलिंग पर धूप,दीप,जल,पुष्प,पंचामृत इत्यादि अर्पित कर विधिवत पूजार्चना करते हैं। ऐसे पावन पुनीत स्थान पर आकर की गई थोड़ी सी भी पूजा अर्चना अत्यन्त पुण्यफलदायी एंव कल्याणकारी होती है। देवता, यक्ष, गंधर्व, किन्नर, आदि सभी का निवास इस शिव भूमि मे है। मणि महेश कैलाश की इस भूमि मे आकर भक्तों को कई आलौकिक अनुभवों का आभास होता है। उन्हे लगता है कि मानो वे भौतिक संसार को छोड़कर देवलोक मे आ गए हैं। कैलाश निवासी भोलेनाथ की इस पावन भूमि के स्पर्श मात्र से ही मनुष्य के जन्म जन्मांतर के पाप स्वयं ही धुल जाते हैं। मणि महेश झील मे स्नान एंव कैलाश पर्वत पर विराजित महादेव का ध्यान मनुष्य को चौरासी लाख योनियों के आवागमन से मुक्ति दिला देता है। जीवन भर याद रहने वाली  महादेव शिव के निवास स्थान की इस यात्रा को हमारा शत शत नमन है।     

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