Monday, 26 December 2016

     प्रकृति की गोद मे बसा है नारायण स्वामी आश्रम 

नारायण स्वामी आश्रम (पिथोरागढ़)

दक्षिण भारत के कर्नाटक के मेंगलूर शहर में सन्न 1908 की मार्गशीष पूर्णिमा (श्री दत्तात्रेय जयंती) के पावन दिन गौड़ सारस्वत ब्राह्मण परिवार मे एक ओजस्वी बालक ने जन्म लिया जिसका नाम राघवेंद्र रखा गया। राघवेंद्र बचपन से ही भक्ति एंव आध्यात्म के मार्ग पर अग्रसर थे। प्राथमिक व माध्यमिक शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात असमय ही उनके पिता का स्वर्गवास हो गया। जिस कारण उन्हे अपने भाई, बहन व माता जी के साथ रंगून (बर्मा) अपने चाचा जी के पास जाना पड़ा। किन्तु परम ब्रह्म की सच्ची खोज व सच्ची शांति प्राप्त कर विश्व के त्रस्त व असहाय प्राणियों की सेवा करने की पुनीत भावना उनके मन मे उद्वेलित होने लगी। जिसके फलस्वरूप कुछ ही समय पश्चात वह घर त्याग कर हरिद्वार की पवित्र नगरी मे आ गये। महादेव शिव की ये नगरी उन्हे अच्छी तो लगी किन्तु मठाधिकारी सन्यासियों के जीवन को देखकर सोने के पिंजरे मे तोता बनकर रहना उन्हे नहीं भाया। कुछ समय हरिद्वार एंव ऋषिकेश मे निवास करने के उपरांत,वह उत्तराखंड के चारों धामों की यात्रा पर निकल पड़े।


पवित्र हिमालय की बर्फीली वादियाँ 

देवात्मा हिमालय बार बार उन्हे अपनी ओर आकर्षित कर रहा था। मार्ग मे हर पल, हर क्षण सतत "नारायण-नारायण" के पवित्र नाम का उच्चारण करना व भिक्षा से उदर पूर्ति करके हरी नाम मे मग्न रहना ही उनकी  दिनचर्या का अंग बन गया। टिहरी के निकट बिलांघना नदी के किनारे भगवान दत्तात्रेय के उपासक एक उच्च कोटी के उपासक सन्यासी महापुरुष से उन्होने सन्यास की दीक्षा ली। यहाँ से राघवेंद्र"श्री नारायणनंद" हो गये। गुरु जी से आशीर्वाद प्राप्त कर वह उत्तरकाशी आ गये जहां स्वामी श्री तेजसानन्दी जी और श्री तपोवन स्वामी जी के सान्निधेय मे रहकर,शास्त्रों का अध्ययन करते रहे। एक दिन अल्मोड़ा मे वास करते हुए उन्हे समाचार मिला की एक बड़े सन्यासी श्री रामानन्द जी अपने भक्तों के साथ,परम पावन कैलाश मानसरोवर (तिब्बित) की महायात्रा के लिए प्रस्थान करने वाले हैं। इस पुनीत यात्रा की उत्कृष्ट अभिलाषा लिए स्वामी जी श्री रामानन्द जी महाराज से मिले। रामानन्द जी बोले,"मार्ग मे सेवा करनी पड़ेगी,पानी भरना  पड़ेगा, जरूरत पड़ने पर रसोई भी बनानी पड़ेगी,"। स्वामी जी हर कठिनाई सहने व सेवा के लिए तैयार हो गये।


व्यास घाटी मे लेखक अपने ग्रुप के साथ 

यात्रा अल्मोड़ा से जोहार घाटी की ओर आरम्भ हुई। मार्ग मे कुंगरी,बिगरि एंव जयंती की दुर्गम,बर्फीली चोटियाँ पार करके यात्रा तीर्थापुरी पहुँची। तीर्थापुरी तिब्बित मे वह स्थान है जहाँ महादेव कैलाशपति जी ने भस्मासुर को भस्म किया था। यात्रा मे कठिन चढ़ाई और उतराई,बरसात,शीतल पवन के तीखे झोके,पीठ पर बोझ आदि से स्वामी जी को बड़ी परेशानी झेलनी पड़ी। फिर भी हिम्मत हारे बिना उन्होने दो महीने मे श्री कैलाश मानसरोवर की महायात्रा सम्पूर्ण की। कैलाशपति जी का ध्यान एंव मानसरोवर का स्नान करके स्वामी जी लिपुलेख दर्रे से वापसी मे दूसरी घाटी यानि ब्यास घाटी से होते हुए गर्व्यांग गाँव पहुंचे। उस समय इस सीमांत क्षेत्र मे यातायात,स्वास्थ,शिक्षा तथा अन्य मूलभूत सुविधाओं का अत्यंत अभाव था। क्षेत्र की उपेक्षा व दरिद्रता ने स्वामी जी को इतना उद्वलित किया कि उन्होने यहाँ निवास कर,इस क्षेत्र के सर्वागीण उत्थान का बीड़ा उठाया। 26 मार्च सन्न 1936 को ग्राम सोसा से लगभग 2.5 किमी. की दूरी तथा समुन्द्र तल से 6 हज़ार फुट की ऊँचाई पर एक विस्तृत टीले के ऊपर दो झोपड़ियों एंव "ॐ श्री नारायण नमः" मंत्र लिखी पताका के साथ इस आश्रम की नींव रखी गयी। उस समय अल्मोड़ा तथा टनकपुर तक ही मोटर मार्ग था जिस कारण भवन निर्माण संबंधी  सामग्री बड़ी ही कठिन परिस्थितियों मे आश्रम तक लाई जाती।



कुमाऊ मण्डल की प्राकृतिक छटा 

प्रकृति की गोद मे बसे इस आश्रम के निर्माण मे कई वर्ष लगे। हिमालय की अद्भुत छटा से परिपूर्ण यहाँ का शांत एकांत वातावरण भक्त-यात्रियो को बरबस ही अपनी ओर आकर्षित करता है। प्राकृतिक हरियाली के बीच आश्रम के सामने नेपाल की हिमछंदित धवल श्रेणियां अचल,नामज्यूयु पर्वत तथा शिवालिक श्रेणियां,अडिग ध्यानावस्थित अवस्था मे अनायास ही दर्शकों का मन मोह लेती है।आश्रम के चारों ओर फैली हरियाली एंव प्रकृति की अछूती सुषमा निहार कर कोई भी यात्री एंव पर्यटक भाव विभोर हुए बिना नहीं रह पाता।  


                                                            

नारायण स्वामी मंदिर का भीतरी दृश्य

आश्रम के प्रथम तल पर एक छोटा किन्तु अत्यंत आकर्षक मंदिर है जिसमे भगवान नारायण की अतिसुन्दर एंव रमणीय मूर्ति प्रतिष्ठित की गई है। मंदिर मे माँ भगवती,हनुमान जी,शंकर जी,गणेश जी तथा श्री लक्ष्मी जी की मूर्तियाँ,शालीग्राम,मंगल कलश एंव दक्षिणायनशंख भी यथास्थान सुशोभित है। साथ ही जगन्नाथ जी,सुभद्रा जी एंव बलभद्र जी की काष्ठनुमा मूर्तियाँ,चंवर एंव अन्य अलंकारिक सामग्री से मंदिर मंडप की शोभा देखने योग्य है। मंदिर भवन के पिछले भाग मे एक बड़े कमरे को पुस्तकालय-संग्रहालय का रूप दिया गया है। नारायण आश्रम मे एक अन्नपूर्णालय तथा 26 कमरे हैं जिसमे तीर्थयात्रियों एंव आगंतुक मेहमानों के ठहरने तथा भोजन आदि की अच्छी व्यवस्था है। आश्रम परिसर मे ही एक गौशाला,स्मृति कुटीर,सेब का बगीचा एंव शून्यता कुटीर भी स्थित है। आश्रम ट्रस्ट द्वारा शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए अस्कोट (पिथोरागढ़) के निकट नारायण नगर मे एक इंटरमीडिएट कॉलेज,पांगू मे कॉलेज एंव जयकोट,खोला,जाड़ापानी एंव छिलासी मे अनुदान देकर अपर प्राइमरी स्कूल आदि अनेक शैक्षणिक संस्थाएं संचालित की जा रही हैं। ट्रस्ट की स्वास्थ संबंधी सेवाएँ भी उल्लेखनीय हैं। श्री नारायण आश्रम पिथोरागढ़ जिले मे स्थित हैं,जहाँ पहुँचने के लिए तीर्थयात्रियों व प्रकृति प्रेमियों को धारचुला से जीप द्वारा 12किमी. पांगू होते हुए पहुँचना पड़ता है। 

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