Monday, 4 September 2017

 रहस्यमयी मन्दिर जहाँ नहीं टिक पाती छत :  शिकारी देवी

माँ शिकारी देवी मन्दिर 

सम्पूर्ण विश्व में देवात्मा हिमालय अपनी अपूर्व प्राकृतिक सुन्दरता के लिए विख्यात है। इसी हिमालय में स्थित देव भूमि हिमाचल में अनेकों ऐसे प्राकृतिक देव स्थल विद्यमान हैं जो स्वयं में कई रहस्य समेटे हुए हैं। ऐसा ही एक रहस्यमयी एंव अलौकिक देव स्थल है - माँ शिकारी देवी। महृषि मार्कण्डेय ने इस सुन्दर स्थान पर कई वर्षों  तप किया जिससे प्रसन्न होकर माँ यहीं विराजमान हो गयीं। प्राचीन मान्यता के अनुसार पाण्डव पुत्रों ने अपने बनवास काल में माँ को प्रसन्न करने हेतू यहाँ मंदिर का निर्माण किया था। मन्दिर तो बन गया किन्तु किसी कारणवश छत का निर्माण करने से पूर्व ही उन्हें यहाँ से पलायन करना पड़ा।  कहा जाता है कि तभी से देवी प्रकोप  के कारण यहाँ कई बार कोशिश करने के बावजूद छत निर्माण का कार्य सम्पन्न नहीं हो पाया। मन्दिर के आस-पास कई सराय निर्मित हैं,जिनपर छत बनाना आसान था किन्तु मंदिर पर छत बनने से पहले ही ढह जाने का सिलसिला हर बार जारी रहा।  शरद ऋतु में यह सम्पूर्ण क्षेत्र 10-15 फुट बर्फ से ढक जाता है। किन्तु यह माँ का चमत्कार ही है कि शिकारी देवी मन्दिर परिसर में बर्फ नहीं टिक पाती। विज्ञान भी आज तक इन चमत्कारों को चुनोती नहीं दे पाया।

प्राकृतिक सुन्दरता से परिपूर्ण क्षेत्र 

प्राचीन काल में अत्याधिक घना वन क्षेत्र होने के कारण शिकारी शिकार पर जाने से पूर्व माँ का आशीर्वाद लेना नहीं भूलते थे। उनका यह मानना था कि माँ का आशीर्वाद लेकर शिकार पर जाने से सफलता अवश्य मिलेगी। जिससे कालान्तर में मन्दिर में प्रतिस्थापित माँ दुर्गा का नाम शिकारी देवी पड़ गया। समुन्द्र तल से लगभग 11000 फुट की ऊँचाई पर शिकारी देवी का मन्दिर मंडी जिले में चौहार घाटी के एक उच्च शिखर पर स्थापित है।  माँ के इस छोटे से मंदिर में कई देवी-देवताओं की पाषाण  मूर्तियाँ स्थापित हैं। यहाँ आये भक्तजन बड़े ही श्रद्धाभाव से पूजार्चना कर माँ का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं।


मन्दिर परिसर में पाषाण मूर्तियाँ 

काफी ऊँचाई पर स्थित होने के कारण  इस क्षेत्र को मंडी क्षेत्र का ताज भी कहा जाता है।  यहाँ से चारों ओर दृष्टि डालने पर ऐसा प्रतीत होता है कि मानो हम बादलों में विचरण कर रहे हों।  शिकारी देवी मंदिर पहुँचने के लिए तीर्थयात्रिओं एंव प्रकृति प्रेमिओं को सर्वप्रथम हिमाचल जिले के मंडी शहर पहुँचना पड़ता है।  मंडी शहर से बस अथवा निजी वाहन द्वारा चैल चौक, बगस्याड, थुनाग होते हुए 75 किमी. दूर जन्जैहली पहुँचा जाता है। जन्जैहली कस्बे से लगभग २ किमी. आगे बायीं ओर 8-10 सीढ़ियाँ नीचे उतरकर एक विशाल शिला दिखाई पड़ती है,जिसे पाण्डव शिला के नाम से जाना जाता है। इतनी विशाल एंव भारी भरकम शिला को हिलाने  का ख्याल भी दिल-दिमाग में नहीं लाया जा सकता। आपको जानकार हैरानी होगी कि आप अपने हाथ की सबसे छोटी ऊँगली से भी इसे हिला सकते हैं। स्थानीय निवासी इसे पवित्र शिला  मानते हैं।  

                                                               

पाण्डव शिला 

जन्जैहली छोटा किन्तु सुन्दर क़स्बा है। प्रकृति ने इस स्थान को अमूल्य सुन्दरता प्रदान की हुई है। यहाँ यात्रियों के ठहरने हेतू हिमाचल टूरिज्म का ट्रेकर हॉस्टल एंव निजी होटल हैं। जन्जैहली से शिकारी देवी तक  सम्पूर्ण मार्ग वन विभाग के अंतर्गत आता है।

रायगढ़ 

मार्ग अति संकरा होने के कारण केवल छोटे वाहन ही मंदिर तक जा पाते हैं।  वाहन पार्किंग से मंदिर प्रांगण तक लगभग 400 सीढ़ियाँ हैं,जिनके दोनों ओर जलपान एंव पूजन सामग्री की झोपड़ीनुमा दुकानें बनी हुई हैं। जो तीर्थयात्री एंव प्रकृतिप्रेमी यहाँ रात्रि विश्राम करना चाहें उनके लिए मन्दिर कमेटी द्वारा स्थायी धर्मशाला बनी हुई है।  साथ ही हिमाचल वन विभाग का विश्राम गृह भी स्थित है।  नवरात्री में यहाँ भक्तों का मेला लग जाता है।  इन दिनों भक्तजन दूर-दूर से यहाँ आकर माँ का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं।               

शिकारी देवी मन्दिर इतिहास 

शिखर पर स्थित शिकारी देवी मंदिर 

माँ का आशीर्वाद प्राप्त करते हुए लेखक 



                       

मन्दिर कमेटी की सराय 


वन विभाग का विश्राम ग्रह 



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Sunday, 20 August 2017


   पाण्डवों को मिले थे यहाँ शिवजी के बूढ़े ब्राह्मण के रूप में दर्शन 

                                                              बूढ़ा केदार 


शिवलिंग पर उकेरी हुई  मूर्तियाँ 
हिन्दूजनमानस के सबसे प्रमुख अराध्य देव भगवान शिव शंकर हैं। देवाधिदेव कहलाने वाले भगवान आशुतोष परम पावन हिमालय के अनेक स्थानो पर प्राकृतिक रूप मे वास करते हैं। ऐसे ही अनेक स्थानों को मनुष्य द्वारा तीर्थस्थलों का रूप दिया गया है। प्रतिवर्ष अनगिनत श्रद्धालु भक्त भगवान शिव की आराधना करने के लिए इन पावन तीर्थों पर पहुँचते हैं। महाहिमालय के मध्य मे ऐसा ही एक परम पावन तीर्थस्थल है - बूढ़ा केदार। पुराणो मे वर्णित इस स्थान को वृद्ध केदारेश्वर बताया गया है। प्राचीन काल मे चार धाम की यात्रा पर जाने के लिए सड़क मार्ग उबलब्ध न होने के कारण तीर्थयात्री गंगौत्री से केदारनाथ बूढ़ा केदार होते हुए जाते थे। प्राकृतिक सुंदरता से परिपूर्ण यह स्थान तीर्थयात्रियों एंव पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करता है। 
बाल गंगा एंव धर्म गंगा का संगम 
बाल गंगा एंव धर्म गंगा नामक दो दिव्य धाराओं के संगम पर बसा यह एक अत्यंत नैसर्गिक स्थान है। स्कन्द पुराण के केदार खंड के अनुसार जब पाँचों पाँडव पुत्र गौत्र हत्या के पाप से मुक्ति के लिए हिमालय के इस इस क्षेत्र मे भ्रमण कर रहे थे तब भगवान शिव शंकर ने उन्हे वृद्ध ब्राह्मण के रूप मे दर्शन दिये। दर्शन देने के उपरांत आशुतोष भगवान शिला मे अन्तर्ध्यान हो गए। भगवान शंकर के पाँडवों को वृद्ध रूप मे दर्शन देने के कारण यह स्थान बूढ़ा केदार कहलाया। गाँव के मध्य मे स्थित छोटा सा यह मंदिर अत्यंत पूज्यनीय है। 
विशाल शिवलिंग 
मंदिर के गर्भ गृह मे ग्रेनाइट पत्थर की एक काली शिला है। इस विशाल पाषाण पर भगवान शिव,नंदी जी,पाँचों पांडव पुत्र आदि विभिन्न देवी देवताओं के चित्र अंकित किए गए हैं। समीप ही एक विशाल त्रिशूल विराजित है। भक्तजन इस विशाल शिला पर जल,फूल,बिल्व पत्र इत्यादि चढ़ाकर पूजार्चना करते हैं। यहाँ श्रावण मास मे शिव भक्त कावड़ियों का मेला लगा रहता है। माघ एंव श्रावण मास मे यहाँ रुद्राभिषेक एंव कथा का आयोजन होता है। दूर-दूर से श्रद्धालु भक्त इन भक्ति कार्यक्रमों मे भाग लेने के लिए बूढ़ा केदार पहुँचते हैं। बूढ़ा केदार के इस  मंदिर मे नाथ सम्प्रदाय के पुजारियों द्वारा पूजार्चना की जाती है।
बूढ़ा केदार मन्दिर 
बूढ़ा केदार का यह क्षेत्र न केवल धार्मिक दृष्टि से अपितु पर्यटन की दृष्टि से भी सभी को अपनी ओर आकर्षित करता है। यहीं से पर्यटक मसर ताल एंव सहस्त्र ताल नामक सुरमई झीलों पर जाने हेतू पैदल यात्रा आरम्भ करते हैं। प्रकृति प्रेमी एंव पथारोहण के अभिलाषी प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण इस मार्ग का रोमांचक आनंद उठाते हैं।
हिमालय एक भू स्वर्ग 
भूस्वर्ग का एहसास कराता यह सम्पूर्ण क्षेत्र तीर्थयात्रियों एंव पर्यटकों दोनों को ही समान रूप से अपनी ओर आकर्षित करता है। बूढ़ा केदार के इस सुरमई क्षेत्र मे पहुँचने के लिए तीर्थयात्रियों को हरिद्वार से लगभग 140       किमी. दूर घनसाली नामक स्थान पर पहुँचना होता है। घनसाली से लगभग 30 किमी. की दूरी पर स्थित है पवित्र बूढ़ा केदार गाँव।         

बूढ़ा केदार गाँव की प्राकृतिक सुन्दरता 
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Thursday, 10 August 2017

 भविष्य में होगी जहाँ बद्रीविशाल की पूजा : भविष्य बद्री 


भविष्य बद्री मन्दिर 
गढ़वाल हिमालय की गगनचुंबी हिम शृंखलाओं के मध्य अनेक ऐसे तीर्थस्थल विद्यमान हैं जहाँ पहुँच पाने की अभिलाषा मानव मस्तिष्क मे चिरकाल से जन्म लेती आई है। अनादिकाल से आर्य भूमि भारतवर्ष अनेक चमत्कारों एंव अवतारों से अविभूत होती आई है। इस महान भूमि पर अनेकों ऐसे रहस्यमयी तीर्थस्थल हैं जिनकी जानकारी आम मनुष्य के लिए अभी भी विस्मय एंव आश्चर्य का विषय है। जोशीमठ के समीप ऐसा ही एक रहस्यमयी तीर्थ है भविष्यबद्री। कहा जाता है कि जोशीमठ स्थित नृसिंह भगवान मन्दिर में शालीग्राम नृसिंह भगवान्  की एक भुजा दिन प्रतिदिन पतली हो रही है। हमारे आदि देव ग्रंथों के अनुसार जब यह भुजा टूटकर मूर्ति से अलग हो जाएगी उस समय नर-नारायण पर्वतों के आपस मे जुड़ जाने से बद्रीनाथ को जाने वाला मार्ग अगम्य हो जाएगा, तब तपोवन स्थित भविष्य बद्री मे भगवान बद्री नारायण की पूजा की जायेगी। 
तपोवन 
जोशीमठ से 15 किमी. दूर मलेरी जाने वाले मार्ग पर स्थित है तपोवन। धवल ताल से निकली धोली गंगा के तट पर शांतपूर्ण वातावरण मे बसे तपोवन से पवित्र द्रोणागिरी पर्वत के दर्शन तीर्थयात्रियों को प्राप्त होते हैं। 
गर्म जल के स्रोत (तपोवन)
तपोवन मे सड़क मार्ग के किनारे ही गर्म जल के अनेक स्रोत हैं, जिनसे  निकलने वाला गर्म पानी तीर्थयात्रियों एंव सैलानियों के लिए जिज्ञासा का विषय बना हुआ है। तपोवन मे रहने के लिए छोटे-छोटे होटलों के अलावा एक ऋषिकुल आश्रम की व्यवस्था भी है,किन्तु प्रायः भविष्य बद्री की ओर जाने वाले यात्री तपोवन से 4 किमी. दूर सलधार मे बने एक आश्रम मे ही रुकना पसन्द करते हैं।
सलधार गाँव 
सलधार गाँव के बीच स्थित इस छोटे से आश्रम के समीप बिखरे अनुपम सौंदर्य का रसपान केवल भाग्यशाली व्यक्तियों को ही हो पाता है। आश्रम का शान्त एकान्त वातावरण तीर्थयात्रियों को एक अलौकिक एंव आनन्दमयी मानसिक शांति प्रदान करता है। प्राकृतिक हरियाली के बीच आश्रम के सामने अडिग ध्यानावस्थित अवस्था मे स्थित दुग्ध धवल हिम छिन्द्ति पवित्र द्रोणागिरी पर्वत की चोटी तीर्थयात्रियों का मन मोह लेती है।
 द्रोणागिरी पर्वत 
आश्रम के चारों ओर फैली हरियाली एंव प्रकृति की अछूती सुषमा निहारकर तीर्थयात्रियों का चित भाव विभोर हो जाता है। द्रोणागिरी पर्वत के आस पास बसे कई गावों मे हनुमान जी की पूजा नहीं की जाती। इन गावों के निवासियों का मानना है कि श्री राम रावण युद्ध मे लक्ष्मण जी के मूर्छित होने  पर हनुमान जी द्रोणागिरी पर्वत का एक हिस्सा ही ले गए थे। यदि उन्हे संजीवनी बूटी की आवश्यकता थी तो केवल बूटी ही ले जाते। पर्वत का एक हिस्सा ले जाने के कारण यहाँ के निवासी हनुमान जी से रुष्ट हो गए,तभी से यहाँ हनुमान जी की पूजा न करने का विधान है। आज द्रोणागिरी पर्वत का एक हिस्सा अपने स्थान पर नहीं है जोकि इस कथा को सत्य प्रमाणित करता है। सलधार से लगभग 6 किमी. की खड़ी चड़ाई द्वारा भविष्य बद्री पहुँचा जाता है। चलने मे असमर्थ यात्रियो को एक दिन पूर्व ही गाँव मे घोड़ो की व्यवस्था कर लेनी चाहिए। जिससे  अगले दिन यात्रा पर निकलने मे असुविधा ना हो। पैदल जाने वाले तीर्थयात्री लगभग 3 घंटे मे भविष्य बद्री पहुँच जाते हैं। ऊबड़ खाबड़ एंव कटीली घास वाले मार्ग से होते हुए तीर्थयात्री यात्री आगे बढ़ते हैं। यहाँ से सुभई गाँव की दूरी लगभग 4किमी. है किन्तु यहाँ से आगे का सम्पूर्ण मार्ग खड़ी चड़ाई वाला होने के कारण यात्रियो को सावधानीपूर्वक चलना पड़ता है। समुन्द्र तल से लगभग नौ हजार फीट की ऊँचाई पर घने वृक्षों के बीच बद्रीनाथ का छोटा सा मंदिर स्थित है। एक छोटे से चबूतरे पर बना यह मंदिर अपने आप मे रहस्यपूर्ण है। 
शिला पर उभरती विष्णु भगवन की मूर्ति 
मंदिर के भीतर एक शिला पर नरसिंह भगवान की शेर के धड़ वाली आकृति स्वयं ही उभर रही है। जनमान्यता के अनुसार जिस दिन ये मूर्ति सम्पूर्ण हो जाएगी तब बद्रीनाथ जाने वाला मार्ग बंद हो जाएगा जिस कारण भक्तों को बद्री विशाल की पूजा हेतू इस स्थान पर आना होगा।  इसी कारण इस स्थान को भविष्य बद्री के नाम से पुकारा जाता है। यहाँ का शान्त एकान्त जादुई वातावरण तीर्थयात्रियों के लिए किसी औषिधि से कम नहीं।
भविष्य बद्री  समीप फैला प्राकृतिक सौंदर्य 
चित को आकर्षित करती हिमालय की इस घाटी मे ऐसा दिव्य आलौकिक स्थान तीर्थयात्रियों एंव प्रकृति प्रेमियों के मन को असीम शान्ति प्रदान करता है। वेद ग्रन्थों के अनुसार तीर्थयात्रियो को किसी भी तीर्थस्थल पर जाकर एक रात्रि का विश्राम अवश्य करना चाहिए। किन्तु भविष्य बद्री तीर्थ मे रात्रि विश्राम की व्यवस्था न होने के कारण तीर्थयात्रियो को पुनः वापसी सलधार अथवा जोशीमठ आना पड़ता है।  


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Monday, 7 August 2017

         होती है जहाँ भगवान शिव के मुख की पूजा : रुद्रनाथ                     

रुद्रनाथ मन्दिर 
सम्पूर्ण देवात्मा हिमालय देवाधिदेव महादेव का निवास स्थान माना गया है। यहाँ पग-पग पर ऐसे कई चमत्कारी तीर्थ स्थल विद्यमान हैं जहाँ दर्शनों का पुण्यलाभ प्रत्येक मनुष्य को मानसिक शान्ति प्रदान करता है। ऐसा ही एक अलौकिक एंव दिव्य स्थल है - रुद्रनाथ। जनमान्यता के अनुसार पांडवों को इसी पवित्र स्थान पर भगवान् शिव की मुखाकृति के दर्शन प्राप्त हुए थे। कहा जाता है कि रुद्रनाथ में भगवान् शिव के मुख एंव नेपाल के पशुपति नाथ में धड़ के दर्शन करने से मनुष्य के जन्म-जन्मान्तर के पाप धुल जाते हैं। देवात्मा हिमालय की विशाल शृंखलाओं के मध्य पंच केदार मे चतुर्थ केदार श्री रुद्रनाथ जी की यात्रा सर्वाधिक कठिन हैं। किन्तु मार्ग मे पड़ने वाले प्राकृतिक छटा से परिपूर्ण अलौकिक दृश्य इस महायात्रा को रमणीय बना देते हैं। निर्जन एंव लंबा मार्ग होने के कारण कम से कम दो-तीन यात्रियो के समूह मे यात्रा करना ही हितकारी होता है। ग्रीष्मकालीन पूजार्चना हेतू भगवान रुद्रनाथ को डोली मे सुसज्जित कर गोपेश्वर से रुद्रनाथ मंदिर ले जाया जाता है। डोली यात्रा के साथ जाने मे आनन्द कई गुना बढ़ जाता है। साथ ही मार्ग मे कुछ सुविधाएँ मिलने के कारण तीर्थयात्रा की कठिनाई कुछ कम हो जाती है। रुद्रनाथ जाने वाले तीर्थयात्री गोपेश्वर स्थित गोपीनाथ मंदिर से यात्रा की जानकारी प्राप्त कर सकते हैं
गोपीनाथ मन्दिर (गोपेश्वर)
तीर्थयात्री गोपेश्वर से लगभग 4 किमी. दूर मोटर मार्ग द्वारा सगर तथा यहीं से 18 किमी. की कठिन पैदल यात्रा द्वारा रुद्रनाथ पहुँचते हैं। पिछले कई वर्षों से रुदरेश्वर भगवान की डोली यात्रा इसी मार्ग से आगे बढ़ती है। 40-50 घरों वाला यह गाँव इस यात्रा मार्ग का अंतिम गाँव है। सगर से 6-7 किमी. की अत्यंत कठिन चड़ाई के उपरांत यात्री चक्रगोंडा नामक स्थान पर पहुँचते हैं। प्रकृति के अद्भुत नज़ारों से परिपूर्ण इस स्वर्गमयी यात्रा मे पग-पग पर फैली अलौकिक एंव मंत्रमुग्ध कर देने वाली दृश्यावली यात्रियो को हर्षित करती है। सम्पूर्ण यात्रा मार्ग आनन्द एंव हरियाली से सराबोर है। तीर्थयात्री हल्की फुल्की चड़ाई वाले मार्ग से मोलीखर्क होते हुए ल्वीटी बुग्याल पहुँचते हैं। ल्वीटी बुग्याल मे पास ही के एक गाँववासी ने छोटी सी अस्थाई झोपड़ी मे यात्रियो के लिए जलपान की व्यवस्था की हुई है। तीर्थयात्री एंव पर्यटक इतनी कठिन चड़ाई के उपरांत कुछ देर यहाँ विश्राम करते हुए प्रकृति के अद्भुत नज़ारों का दृश्यावलोकन करते हैं। यहाँ से थोड़ा आगे बढ़ने पर कौआठानी नामक स्थान आता है। एक बड़ी सी चट्टान पर कौए की आकृति यात्रियो को सुस्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। ऐसी मान्यता है कि यही स्थान काक भुशण्डी ऋषि की तपोस्थली रही है। यहाँ से लगभग 2 किमी. आगे बढ़ने  पर पनार बुग्याल नामक स्थान आता है।
पनार बुग्याल 
चारों ओर फैली मखमली घास के हरे भरे मैदान की सुंदरता को शब्दों मे बांध पाना असंभव है। हिमालय की ऐसी अद्भुत सौंदर्यपूर्ण घाटी मे यात्री अपनी सारी थकान भूलकर इन घाटियों के मनोरम दृश्यों मे खो जाते हैं। हरियाली के इस कालीन पर बैठकर सामने हिमछंदित पर्वत शृंखलाओं का दृश्यावलोकन नयनों को शीतलता प्रदान करता है। प्रत्येक तीर्थयात्री हिमालय की मंत्र मुग्ध कर देने वाली इस अपूर्व शोभा को प्रणाम करते हैं।समुन्द्र तल से लगभग 11000 फुट की ऊँचाई पर स्थित इस पनार बुग्याल मे यात्रियो एंव सैलानियों के विश्राम हेतू एक स्थायी टिन शैड की व्यवस्था है। रात्री विश्राम के इच्छुक यात्रियो को एक स्थानीय दुकानदार द्वारा रज़ाई एंव गददों की सशुल्क व्यवस्था करवा दी जाती है। इस टिन शैड मे आराम से 30-40 यात्रियो के रुकने की व्यवस्था है। यात्रियो के ऑर्डर देने पर चाय नाश्ता एंव भोजन उबलब्ध हो जाता है। अधिकतर विभिन्न प्रदेशों से आये तीर्थयात्री एंव सैलानी यात्री विश्राम के लिए यहीं रुकते हैं जबकि स्थानीय निवासी एक ही दिन मे रुद्रनाथ गुफ़ा तक पहुँच जाते हैं। यहाँ से 3 किमी. आगे की ओर पित्रधार नामक स्थान पर तीर्थयात्रियो को पित्रों की पूजा करने के उपरांत ही आगे बढ़ना चाहिए। 
पितृ धार 
चारों ओर प्रकृति के अद्भुत नज़ारों के बीच पूजार्चना करते हुए तीर्थयात्रियों को जो आत्मिक आनन्द प्राप्त होता है वह अवर्णनीय है। यहाँ से आगे पंचगंगा का ढलावना मैदान आरम्भ होता है। पंचगंगा से एक-डेढ़ किमी. आगे देवदर्शनी नामक स्थान है। यहीं से रुद्रनाथ भगवान के सर्वप्रथम दर्शन यात्रियो को प्राप्त होते हैं। अत्यन्त कठिन मार्ग से होते हुए तीर्थयात्री देवदर्शनी पहुँचकर रुद्रनाथ भगवान को  साष्टांग प्रणाम करके गुफ़ा की ओर बढ़ते हैं। मंदिर से कुछ पहले नारद कुंड मे मुँह हाथ धोकर तीर्थयात्री रुद्रनाथ मंदिर मे दर्शनों के लिए जाते हैं। समुन्द्र तल से लगभग 2300 मीटर की ऊँचाई पर स्थित गुफ़ानुमा स्थान को रुद्रनाथ मंदिर मे परिवर्तित किया गया है। रुद्रनाथ का यह मंदिर पांडवों द्वारा प्रतिष्ठित है। जनमान्यता के अनुसार इसी स्थान पर पांडवों को भगवान शिवजी के रोद्र रूप मे दर्शन प्राप्त हुए थे जिससे इस स्थान का नाम रुद्रनाथ पड़ गया। एक बड़े से चबूतरे पर बना यह गुफ़ानुमा मंदिर कल्पेश्वर की भाँति ही प्राकृतिक गुफ़ा मे स्थित है। मुख्य मंदिर के साथ ही दायीं ओर वनदेवता का एक छोटा सा एक मंदिर है जिसे स्थानीय लोग वणदौ के नाम से पुकारते हैं। जनमान्यता है कि इस पावन पवित्र क्षेत्र की रक्षा वन देवी-देवताओं द्वारा की जाती है और यदि वे रुष्ट हो जायें तो नाना प्रकार के अनिष्ट होने का भय सदा बना रहता है। इसीलिए सर्वप्रथम वन देवताओं की पूजार्चना करने के उपरांत ही रूद्रेश्वर भगवान की गुफ़ा मे प्रवेश किया जाता है। तीर्थयात्री धूप,दीप,नैवेद्य,फल-फूल एंव पंचामृत इत्यादि के साथ महादेव की मुखाकृति की विधिवत पूजार्चना कर भगवान रुद्रनाथ से सुख शांति का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। मुख्य पुजारी द्वारा किए गए शृंगार से सुसज्जित मूर्ति ऐसी प्रतीत होती है मानो साक्षात महादेव विराजित होकर भक्तों को दर्शन दे रहे हैं। तीर्थयात्रियों को मंदिर के भीतर उमा-महेश,गणेश जी,कार्तिकेय जी,माँ दुर्गा इत्यादि कई देवी-देवताओं के एक साथ दर्शनों का पुण्यलाभ प्राप्त होता है। रुद्रनाथ देवालय के सामने दायीं ओर स्वच्छ जल की एक निर्मल धारा निरन्तर प्रवाहित रहती है,जिसे स्वर्गद्वारी कहते हैं। मंदिर मे पूजार्चना एंव भोग इत्यादि के लिए इसी जल का उपयोग किया जाता है। रुद्रनाथ से लगभग 3-4 किमी. ऊपर की ओर जाने पर लाल माटी नामक स्थान पड़ता है। किन्तु मार्ग कठिन होने के कारण अधिकतर तीर्थयात्री वहाँ नहीं जा पाते। यहीं पास के क्षेत्र मे ब्रह्म कमल भी उगते हैं। जिन्हे मंदिर मे भगवान शिव की पूजार्चना के लिए प्रयोग मे लाया जाता है। रुद्रनाथ मंदिर के आस पास सूर्य कुंड,चंद्र कुंड,तारा कुंड एंव मानस कुंड स्थित है।
सरस्वती कुंड 

रुद्रनाथ मंदिर के पीछे 20-25 कदम की दूरी पर सरस्वती कुंड है। यह गोलाकार एंव लगभग 30 मीटर लंबा तथा 15 मीटर चौड़ा है। खिली हुई धूप मे कुंड के शान्त,स्वच्छ एंव निर्मल जल मे प्रकृति का नज़ारा देखने योग्य होता है। कुंड मे हिमालय की बर्फीली चौटियों का प्रतिबिंब अत्यन्त चिताकर्षक लगता हैं। मंदिर से 11 किमी. नीचे की ओर वैतरणी कुंड है। प्राचीन मान्यता के अनुसार मरणोपरांत जीवात्मायें वैतरणी नदी को पार कर दूसरे जीवन मे प्रवेश करती हैं। प्राचीन काल मे तीर्थयात्री अपने पूर्वजों की आत्मा की शान्ति के लिए क्रियाकर्म,तर्पण,पिंडदान इत्यादि यहीं किया करते थे। किन्तु अब अधिकतर यात्री मंदिर के समीप ही स्थित नारद कुंड मे ही यह कार्य सम्पन्न करते हैं। रुद्रनाथ मंदिर के पृष्ठभाग मे नंदादेवी,त्रिशूल तथा नंदा घुंटी की दुग्धधवल बर्फीली चोटियों के भी दर्शन पाकर तीर्थयात्री एंव सैलानी अपनी यात्रा को और भी यादगार बनाते हैं। सम्पूर्ण दृश्यावली अत्यन्त हृदयाकर्षक है। हिमछिंदित चोटियाँ ऐसी प्रतीत होती हैं मानो बर्फ की सफ़ेद चादर से लिपटी स्वर्ग की कोई अनमोल अप्सरा हो। मई जून से नवम्बर तक भट्ट एंव तिवारी परिवार के पुजारियों द्वारा प्रतिवर्ष बारी बारी से रुद्रनाथ भगवान की पूजार्चना सम्पन्न की जाती है। शीतकाल मे जब कई फुट्ट बर्फ जम जाने से यह मार्ग अगम्य हो जाता है तब भगवान रुद्रनाथ जी की पूजार्चना गोपेश्वर स्थित गोपीनाथ मंदिर मे की जाती है।

डोली में विराजित भगवान रुद्रनाथ 
जिस प्रकार ग्रीष्मकाल के आरम्भ होने पर रुदरेश्वर भगवान को डोली मे सुसज्जित कर रुद्रनाथ ले जाया जाता है उसी प्रकार शीतकाल आरम्भ होते ही उन्हे पुनः वापसी शीतकालीन पूजार्चना के लिए गोपीनाथ मंदिर मे लाया जाता है। यात्रियो को विशेष सुझाव है कि वे अपनी यात्रा डोली के साथ सम्पन्न करें। डोली यात्रा के साथ जाने से तीर्थयात्रियो को मार्ग मे सुविधाओं के साथ साथ कई गुणा अधिक आनंद भी प्राप्त होता है।         
रुद्रनाथ देवालय पहुँचने के लिए तीर्थयात्रियों को सर्वप्रथम हरिद्वार पहुँचना पड़ता है। यहाँ से पहाड़ी सर्पीले सड़क मार्ग द्वारा चमोली जिले के मुख्यालय गोपेश्वर पहुँचकर आगे की यात्रा सगर होते हुए सम्पन्न की जाती है।  

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Sunday, 16 July 2017

शनि कृपा से आज भी नहीं लगते दरवाज़ों पर ताले : शनि शिंगणापुर 

शनि शिंगणापुर 
भगवान सूर्य के अतिबलशाली पुत्र शनिदेव मृत्युलोक के ऐसे स्वामी हैं जो मनुष्यों को उनके अच्छे बुरे कर्मों के आधार पर न्याय देते हैं। वैसे तो कर्मों के  न्यायधीश शनिदेव सम्पूर्ण भारत में कई जगह विराजमान हैं। किन्तु मथुरा के निकट कोकिला वन एंव महाराष्ट्रा के अहमदनगर के निकट स्थित शिंगणापुर भारत ही नही अपितु विश्व में शनिधाम के नाम से विख्यात हैं। एक दन्त कथा के अनुसार सालों पहले इस गाँव में भयंकर बाढ़ आयी, जिसमें काफी जान माल का नुक्सान होने लगा। बाढ़ के साथ ही एक दिव्य शिला बहती हुई  गाँव में आ गयी। अगले दिन एक आदमी को यह शिला पेड़ के ऊपर अटकी दिखी। उसने जब उत्सुकतावश इसे पेड़ से नीचे उतारकर तोड़ने की कोशिश की तो उसमे से रक्त बहने लगा। रक्त निकलता देख वह आदमी घबराकर गाँव की ओर दौड़ा और जाकर  जब उसने आपबीती सुनाई तो उसकी बात सुनने वाले सभी लोग उसके साथ उसी स्थान पर गए और शिला को  देखकर आश्चर्य में   पड़ गए।  कुछ भी समझ न आने के कारण ये सोचकर वापिस आ गए कि कल आकर निर्णय लेंगे कि क्या करना चाहिए। रात को शनिदेव ने उस आदमी को स्वप्न में दर्शन देकर कहा कि वह शिला मेरा ही स्वरुप है। उस शिला को गाँव में स्थापित कर पूजार्चना करने से गाँववासी सदैव आपदा से मुक्त रहेंगे।  अगली सुबह उस व्यक्ति ने अपना स्वप्न गाँव वालों को सुनाया। सभी की रज़ामंदी से उस दिव्य शिला को गाँव में स्थापित करने  निर्णय लिया गया।  किन्तु कई लोगों की कोशिश के बावजूद  शिला टस से मस न हुई।  गाँव वाले अगले दिन कुछ उपाय सोच का दोबारा आने का निश्चय कर वापिस लोट आये।  रात में उसी व्यक्ति को फिर से दर्शन देकर शनि देव ने कहा कि यदि कोई मामा भांजा कोशिश करें तो शिला को गाँव तक लाया जा सकता है। अगली प्रातः उसके स्वप्न अनुसार रिश्ते में सगे मामा भांजे से उस शिला को गाँव तक लाया गया और बड़े से मैदान के बीचो बीच ऐसे स्थान पर स्थापित कर दिया गया जहाँ सूर्य की सीधी किरणे पड़ती रहें।  आज भी इस पवित्र शिला रुपी शनिदेव की मूर्ति के ऊपर कोई छत या गुंबद  नही है।  इतने सालों धूप, गर्मी, सर्दी, बारिश झेलने के बावजूद शिला ज्यों की त्यों विराजमान है।  
शनि प्रतिमा 
काले रंग की यह दिव्य प्रतिमा ५ फुट ९ इंच लंबी और १ फुट ६ इंच चौड़ी है। मुख्य गेट से अंदर आते ही बायीं ओर थोड़ा आगे चलकर संगमरमर के चबूतरे पर सूर्यपुत्र शनिदेव शिला रुपी विग्रह में भक्तों को दर्शन देते हैं।चबूतरे के चारों तरफ स्टील की ग्रिल लगा रखी है जिससे मूर्ति को स्पर्श न किया जा सके। शनिदेव को सरसों का तेल अति प्रिय है।  इसलिए ग्रिल के समीप ही एक टैंक बनाया गया है। सभी भक्तजन अपने साथ लाए हुए तेल को इस टैंक के ऊपर लगी जाली में डाल देते हैं।  विधुत मोटर के द्वारा पाइपलाइन से होते हुए निरन्तर इस तेल से शनिदेव का अभिषेक होता रहता है। शनिदेव की मूर्ति के ठीक सामने ४-५ सीढ़ियाँ चढ़कर एक प्लेटफॉर्म है जहाँ भक्तजन बैठकर पूजार्चना करवा सकते है।



यह गाँव एक और विशेषता के कारण देश-विदेश में प्रसिद्ध है। आपको जान कर हैरानी तथा देखकर निःसंदेह अचम्भा होगा कि यहाँ घरों,होटलों, दुकानों और तो और बैंक तथा डाकघरों में भी ताले नहीं लगाए जाते। यहाँ चोरी का डर किसी को  भी छूने नहीं पाता। कहा जाता है कि यदि बाहर से कोई चोर यहाँ आकर चोरी कर भी ले तो वह गाँव से बाहर नहीं जा पाता तथा इसी गाँव में भटकता रह जाता है।  कई चोरो ने  इस सत्य को स्वीकार भी किया कि चोरी  के उपरांत वह इस गाँव से बाहर जाने का रास्ता ही नहीं खोज पाये।
शनि शिंगणापुर देव स्थान अहमदनगर से लगभग 35 किमी., औरंगाबाद से 84 किमी. और शिरडी से 60 किमी. की दूरी पर स्थित है।          

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Tuesday, 25 April 2017

जहाँ कार्तिकेय जी ने दान मे दे डाली अपनी हड्डियाँ :                     कार्तिकेय स्वामी मन्दिर



कार्तिकेय स्वामी मंदिर 

भारत ही नहीं अपितु सम्पूर्ण विश्व मे देवात्मा हिमालय का अपना अलग ही स्थान है। हिमालय शृंखला मे लगभग जितने भी सुन्दर स्थान हैं वहाँ आपको देव स्थल अवश्य मिल जायेंगे। हिमालय की इन विराट शृंखलाओं के मध्य मात-पित्र भक्ति को समर्पित एक अत्यन्त अलौकिक तीर्थ स्थल है - कार्तिकेय स्वामी मन्दिर। रुद्रप्रयाग-पखोरी सड़क मार्ग पर एक छोटा सा गाँव है - कनकचौरी। रुदप्रयाग से यहाँ की दूरी लगभग 40 किमी. है।



रुद्रप्रयाग-पखोरी सड़क मार्ग 

हिमालय की गोद मे बसे इस सुंदर गाँव से कार्तिकेय स्वामी मन्दिर पहुँचने के लिए यात्रियो को लगभग 3-4 किमी. का पैदल मार्ग तय करना होता है। घने जंगलों से घिरा ये सम्पूर्ण मार्ग हल्की चढ़ाई वाला है। यहाँ जंगली जानवरों का भय सदैव बना रहता है जिस कारण तीर्थयात्रियों एंव सैलानियों को भय एंव रोमांच का एक साथ अनुभव होता है। मन्दिर से कुछ पहले मुख्य पुजारी जी का निवास स्थान है जहाँ 2-3 कमरे यात्रियो के ठहरने के लिए बनाये गए हैं किन्तु अधिक व्यवस्था न होने के कारण लगभग सभी यात्री दर्शनोपरांत वापिस कनकचौरी आ जाते हैं। मन्दिर तक पहुँचने के लिए लगभग 30-40   सीढ़ियाँ है। इन सीढ़ियो के एक ओर गहरी खाई होने के कारण यात्रियो को सावधानीपूर्वक सीढ़ियाँ चढ़नी पड़ती हैं। मन्दिर प्रांगण मे पहुँचने पर नज़ारा देखते 40 ही कुछ सेकंड के लिए दिल-दिमाग स्थिर हो जाता है। यह स्थान समुन्द्र तल से लगभग 3048 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है।  



मंदिर प्रांगण मे भक्तजन 

पुराणों मे वर्णित कथा के अनुसार एक बार भगवान शिव ने अपने पुत्रों (भगवान गणेश एंव भगवान कार्तिकेय) से कहा कि जो भी सबसे पहले सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का चक्कर लगाकर वापिस मेरे पास आएगा वह ही मेरा प्रिय पुत्र होगा। कार्तिकेय जी सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का चक्कर लगा आए, किन्तु गणेश जी ने माता-पिता को ही अपना ब्रह्माण्ड मानते हुए उनका चक्कर लगा लिया। ब्रह्माण्ड का चक्कर लगाकर वापसी आने पर जब कार्तिकेय जी को सच्चाई का पता चला तो क्रोधवश उन्होने अपनी हड्डियाँ भगवान शिव तथा माँस माता पार्वती को समर्पित कर दिया। भगवान कार्तिकेय जी की हड्डियाँ आज भी इस मन्दिर मे रखी हुई हैं, जिनकी पूजा करने भक्त यहाँ आते हैं। मन्नत पूरी होने पर भक्तों द्वारा बाँधी गई घंटियाँ उनकी श्रद्धा एंव आस्था को दर्शाती हैं। साफ मौसम मे चारों ओर दृष्टि डालने पर बर्फ से आछन्दित चौखम्बा, बंदर पूँछ, द्रोणागिरी, नन्दा घूंटी, केदार डोम, मेरु-सुमेरु आदि चोटियाँ दृष्टिगोचर होती हैं। इतनी ऊँचाई से जिस ओर दृष्टि डालो हरियाली ही हरियाली मन को मंत्रमुग्ध कर देती है। 

हरियाली से सराबोर प्रकृति 

हरियाली से सराबोर इन जंगलों को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि अभी तक यहाँ प्रकृति से कोई छेड़-छाड़ नहीं की गयी है। शांति से परिपूर्ण इस वातावरण मे आकर कोई भी व्यक्ति अपने मन को एकाग्रचित कर सकता है। प्रकृति से साक्षात्कार कराता यह वातावरण तीर्थयात्रियों एंव सैलानियों को बार बार यहाँ आने के लिए प्रेरित करता है।  

मंदिर से दृष्टिगोचर सुन्दर घाटियाँ 

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Saturday, 4 March 2017

जहाँ रात मे निकलती है माँ की डोली - 

                       हरियाली देवी 

सिद्धपीठ हरियाली देवी मंदिर 
इसमे कोई शक नही कि भारत की आत्मा तीर्थों मे वास करती है। नास्तिक से नास्तिक व्यक्ति भी इन तीर्थस्थलों पर पहुँचकर यहाँ के आध्यात्मिक वातावरण से वशीभूत होकर थोड़ी बहुत पूजार्चना एंव कर्मकांड कर ही लेता है। जाने अनजाने इन पवित्र स्थलों मे की गयी थोड़ी सी भी पूजार्चना जन्म जन्मांतर  के पापों को नष्ट करने मे सक्षम है। देवात्मा हिमालय का हरेक कण स्वयं मे आलौकिक है। यहाँ की हरियाली का तो कहना ही क्या। इसी हरियाली से सराबोर दिव्य सिद्ध पीठ है - हरियाली देवी। इस पवित्र स्थान पर पहुँचने के लिए यात्रियो को राष्ट्रीय राजमार्ग 58 पर रुद्रप्रयाग गोचर के बीच स्थित नगरासू गाँव पहुँचना होता है। यहाँ से नवनिर्मित सड़क द्वारा लगभग 25 किमी. की दूरी पर है जसोली गाँव, जहाँ पर स्थित है माँ हरियाली देवी का सुप्रसिद्ध मंदिर। 
नवनिर्मित नगरासू-जसोली सड़क मार्ग 

इस स्थान पर माँ को बालासुन्दरी के रूप मे पूजा जाता है। माँ हरियाली देवी मंदिर मे मुख्य तीन प्रतिमाएँ स्थापित हैं - माँ हरियाली देवी,क्षेत्रपाल एंव हित्त देवी। मंदिर परिसर मे ही अन्य कई देवी-देवताओं की मूर्तियाँ भी शोभायमान हैं। पुजारी जी भक्तों द्वारा लायी गयी पूजन सामग्री बड़े ही श्रद्धाभाव के साथ माँ को समर्पित करते हैं। दीपावली से एक दिन पूर्व इस मंदिर परिसर से एक अलौकिक देवी यात्रा की शुरुआत होती है। यहाँ से 8 किमी. की दूरी पर स्थित है हरियाली कांठा। समुन्द्र तल से लगभग दस हज़ार फीट की ऊँचाई पर स्थित यह स्थान घने जंगलों से घिरा है।

हरियाली कांठा क्षेत्र की हरियाली 

लोगों का विश्वास है कि हरियाली कांठा माँ हरियाली देवी का मायका तथा जसोली गाँव माँ का ससुराल है। इसी लिए माँ की चल मूर्ति को एक दिन के लिए ससुराल से मायके ले जाने की परम्परा है। दीपावली से एक दिन पूर्व विशेष पूजार्चना के पश्चात माँ हरियाली देवी की चल मूर्ति को गर्भ ग्रह से निकालकर बड़ी ही सुन्दर डोली मे सजाया जाता है। रात्रि के समय माँ की डोली यात्रा आरंभ होती है जिसमे हजारों की संख्या मे देवीभक्त शामिल होते हैं। इस यात्रा मे महिलायें सम्मिलित नहीं होती। 8 किमी. पैदल खड़ी चड़ाई के पश्चात भोर की किरणों के साथ जब माँ की डोली हरियाली कांठा पहुँचती है तो वहाँ का नज़ारा देखने योग्य होता है। जनमान्यता के अनुसार जब कंस द्वारा देवकी की सातवीं संतान महामाया को धरती पर पटका गया, तब महामाया का शरीर अलग-अलग भागों मे खंडित हो गया तथा उनका हाथ इस पवित्र हरियाली कांठा मे गिरा,तभी से यह स्थान सिद्धपीठ कहलाया। श्रद्धालु भक्त हरियाली कांठा मे माँ की पूजार्चना के बाद ही दीपावली का पर्व मनाते हैं। मार्ग कठिन होने के कारण भक्तजन सम्पूर्ण वर्ष जसोली गाँव मे स्थित मंदिर मे ही माँ हरियाली देवी की पूजार्चना करते हैं।

हरियाली से भरपूर जसोली गाँव 

जसोली एक छोटा सा गाँव है, जिस कारण यहाँ ठहरने के लिए किसी भी होटल अथवा लॉज की व्यवस्था नहीं है। गढ़वाल मण्डल विकास निगम का एक टूरिस्ट रेस्ट हाउस है जो प्रायः बन्द रहता है। मंदिर परिसर मे ही एक छोटी सी धर्मशाला मे कुछेक कमरे यात्रियो के ठहरने के लिए बने हुए हैं।

 
जसोली गाँव के समीप  प्रकृतिक झरना  

मेरा परम सौभाग्य रहा कि जब हम इस सिद्ध पीठ की यात्रा के लिए गये तो यहाँ के मुख्य पुजारी श्री सचिदानन्द चमोली जी ने स्वयं मुझे परिवार सहित अपने घर पर ही रुकने का आमंत्रण दिया। पहले तो हमे कुछ संकोच हुआ किन्तु गाँव के महोल मे रहने का इतना स्वर्णिम अवसर खोना एक महामूर्खता होती। एक रात विश्राम मे ही सचिदानन्द जी द्वारा किए गये अतिथि सत्कार के आगे हम  नतमस्तक हो गये। जय माँ हरियाली देवी।  

मंदिर मे पुजारी जी के साथ लेखक 



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Thursday, 23 February 2017

जहाँ तीन युगों से प्रज्ज्वलित है शिव-पार्वती विवाह अग्नि : त्रियुगीनारायण 

मुख्य मंदिर 

नागाधिराज हिमालय की परम पावन शृंखलाओं मे अनेकों ऐसे महातीर्थ हैं जिनकी अपनी विशिष्ट पहचान है। शिव एंव शक्ति की इस पावन भूमि मे तीन युगों से आस्था एंव परम विश्वास का केंद्र त्रियुगीनारायण ऐसा ही एक परम कल्याणकारी तीर्थस्थल  है। रुद्रप्रयाग से केदारनाथ जाने वाले मार्ग पर सोनप्रयाग से बाई ओर लगभग 13 किमी. की दूरी पर घने वृक्षों वाले मोटर मार्ग द्वारा त्रियुगीनारायण पहुँचा जाता है।

सोन गंगा 

यही वो पावन पवित्र स्थान है जहाँ राजा हिमाचल ने अपनी प्रिय पुत्री पार्वती का कन्यादान कर, त्रिलोकस्वामी भगवान शिव के साथ पाणिग्रहण (विवाह) करवाया था। इसी स्थान पर भगवान नारायण तथा ब्रह्मा जी ने विवाह के साक्षी होकर भगवान शिव पार्वती के हवन कुंड के समक्ष फेरे करवाये थे ।

पवित्र हवन कुंड 

केदारखंड मे ये ही वह रमणीय प्राचीन स्थान है जहाँ राजा हिमाचल के आदेशानुसार इंद्रदादि देवताओं ने उग्र तप द्वारा भगवान विष्णु हरी की प्रसन्नता हेतु लोककल्याण यज्ञ किया था। इसी पवित्र स्थान पर चतुर्भुज नारायण भगवान माँ लक्ष्मी एंव वाम भाग मे माँ सरस्वती सहित सुशोभित हैं। माँ पार्वती द्वारा पूछे जाने पर कि हे त्रिलोक के स्वामी महादेव इस उत्तम केदारखंड मे ऐसा कौन सा पुण्य स्थान है जहाँ पर मनुष्य एक बार मे अपने समस्त पापों को त्याग सकता है। तब महादेव बोले अब मै उस क्षेत्र का वर्णन करता हूँ जोकि हरी नारायण का क्षेत्र है तथा जहाँ जाने से मनुष्य स्वयं हरी के समान हो जाता है। हे गौरा ! सोनप्रयाग से पीछे त्रिविक्रिमा नदी के समीप जो नारायण तीर्थ है तथा जिसके दर्शन मात्र से ही हरी नारायण की भक्ति बढ़ती है। ऐसे परम कल्याणकारी तीर्थ मे नारायण स्वयं विराजमान रहते हैं। ऐसे परम पुनीत स्थान के दर्शन मात्र से ही मनुष्य आवागमन के चक्र से मुक्त हो जाता है। महत्वफल को देने वाला ये ही वह स्थान है जिसके ऊपर रमणीक यज्ञ पर्वत है। यहाँ से ईशान दिशा मे चार मील की दूरी पर वासुकी सरोवर नामक स्थान है जहाँ पौराणिक वासुकी नाग का निवास भी था। इसी स्थान पर वासुकी नदी तथा दो अन्य गंग धाराएँ मिलकर सोन गंगा कहलाती हैं, जोकि नीचे सोनप्रयाग नामक स्थान पर केदारनाथ से आने वाली मंदाकिनी नदी मे समाहित हो जाती है। महादेव जी आगे कहते हैं कि हे पार्वती ! इस हरी पर्वत की स्थिति के कुछ चिन्ह मै तुम्हें बतलाता हूँ, जिसे जानने से मोक्ष पद की प्राप्ति होती है। धनंजय नामक अग्नि के नित्यप्रति वहाँ महाप्रज्ज्वलित होने तथा दर्शन करने से मनुष्य को मुक्ति प्राप्त होती है।

तीन युगों से  प्रज्ज्वलित शिव-पार्वती विवाह अग्नि 

इसी पवित्र अग्नि का ब्रह्मादि देवताओं ने पूजन किया था। जब से इस स्थान पर महादेव एंव माँ पार्वती का विवाह सम्पन्न हुआ है तभी से इस हवन वेदी मे अखण्ड धुनि जल रही है। जनमान्यता है कि यह अग्नि तीन युगों से निरन्तर प्रज्ज्वलित है। तीर्थयात्री इसी हवनकुंड की विभूति को अपने मस्तक पर लगाकर करुणासिंधु महादेव का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। विवाहित जोड़े बड़ी ही आस्था एंव श्रद्धा के साथ इस हवनकुंड की परिक्रमा करते हैं तथा चावल से भरी थाली चढ़ाकर अपने सुखी विवाहित जीवन की कामना करते हैं। मंदिर परिसर मे ही चार कुंड बने हुए हैं जहाँ तीर्थयात्रियों द्वारा रुद्रकुंड मे स्नान,विष्णुकुंड मे मर्जन,ब्रह्मकुंड मे आचमन तथा सरस्वतीकुंड मे तर्पण किया जाता है। ऐसे परम पवित्र तीर्थस्थल पर पहुँच कर तीर्थयात्री आत्मिक आनंद से भावविभोर होकर इस श्रेष्ठ तीर्थ को बारंबार प्रणाम करते हैं।            

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