Sunday, 27 November 2016

                         

  माँ गंगा :एक मोक्षदायनी धारा


गंगोत्री धाम मे लेखक अपने मित्रों के साथ 


प्राचीन काल से ही भारत भूमि में नदियों का अपना आध्यात्मिक एंव पौराणिक महत्व रहा है। युगो-युगों से हमारे आदिग्रंथ इन महान जल धाराओं की महिमा को दर्शाते हुए,एक दिव्य एंव अलौकिक प्रस्तुति पेश करते आए हैं। इन्ही जलधाराओं में से एक अति पावन व पुनीत धारा हैं गंगा जी की,जिसकी महिमा का व्याख्यान हमारे ऋषि -मुनि,साधू-संत व महात्मा लोग सदियों से करते आ रहे हैं। इस पावन गंगा जी के स्मरण मात्र से ही मनुष्य के जन्म-जन्मांतर के पाप स्वयं ही धूल जाते हैं,उसी दिव्य सलिला को हम बारंबार प्रणाम करते हैं। हिमगिरि के हिम छंदित शिखरों से निकल कर गंगा जी,मैदानों पर से विहारते हुए लगभग 2500 किमी. का एक मनोरम सफर पूर्ण कर गंगा-सागर के समीप बंगाल की खाड़ी मे समाती हैं। अपनी इस अति पावन यात्रा में गंगा जी करोड़ो भारतवासियों का उद्धार करते हुए,उन्हें लाभान्वित करती हैं। स्कन्द पुराण में तो यह तक कहा गया है कि सतयुग मे ध्यान द्वारा,त्रेता युग मे योग द्वारा,द्वापर युग मे तपस्या से एंव कलयुग मे मात्र गंगा स्नान से मनुष्य को मोक्ष पद प्राप्त हो जाएगा। विश्व विजेता एग्लेंडर के मुख से गंगा जी के दर्शनों के पश्चात यही शब्द निकले थे कि "यदि मनुष्य का कोई अंतिम पड़ाव है तो वह है गंगा जी का पावन तट"। गंगा जी भी कोई सामान्य परिस्थिति मे अवतरित नहीं हुई थी इस मृत्यु लोक मे। राजा भागीरथ ने हजारों वर्ष के कठोर तप द्वारा गंगा जी को स्वर्ग से उतार कर भूमंडल मे लाने का अत्यंत कठिन कार्य। ब्रह्मा जी के कमंडल मे से निकल कर जब भागीरथी की पुनीत धारा मृत्यु लोक की तरफ चली तो उनके प्रवाह को देखकर ऐसा प्रतीत हुआ कि मानो वह सम्पूर्ण भूलोक को अपने साथ बहा के ले जाएंगी,तब आकाश मार्ग से उतर कर भागीरथी जी परम पावन कैलाश पर्वत पर विराजमान प्रभु सदाशिव जी की जटाओं मे प्रवाहित हुईं। 


जलमग्न शिवलिंग - गौरीकुंड (गंगोत्री धाम)

आज भी जब गंगा जी,गौमुख से निकल कर गंगोत्री पहुँचती हैं तो वहीं पास मे स्थित प्राकृतिक "जलमग्न शिवलिंग" (सदैव जल से ढका हुआ) पर उनकी धारा पड़ती है जोकि इस बात को पूर्ण रूप से प्रमाणित करता है कि गंगा जी महादेव शिवजी की स्वर्णिम जटाओं से निकल कर मैदानों की तरफ आगे बढ़ती हैं। पर्वतराज हिमालय की पुत्री गंगा जी  देवलोक से अवतरित होने वाली पुण्य सलिला सम्पूर्ण भारतभूमि का उद्धार करने वाली बेहद महान व गौरवशाली नदी हैं। पावन भागीरथी के समक्ष एकांत मे ध्यान चिंतन से मनुष्य को जो अलौकिक व दिव्य चेतना की अनुभूति प्राप्त होती है,उसे शब्दों के माध्यम से वर्णित करना अति कठिन कार्ये है क्योंकि गंगा जी की हृदय हारी ध्वनि मन एंव तन दोनों को सुखदायक आनंद से ओत-प्रोत करने में सम्पूर्ण रूप से सक्षम है। 


देवात्मा हिमालय में प्राकृतिक छटा 

प्रत्येक मनुष्य श्रद्धा को अपने मन की आखों से देखता है। किसी की श्रद्धा पर्वतों मे है,तो किसी की जलधाराओं में,कोई माटी की मूर्ति में श्रद्धावान होकर प्रभु को ध्याता है,तो कोई पशुओं की पूजा करके आनंदित होता है। श्रद्धा का मूल तत्व है विश्वास और विश्वास तर्कों को अपने से कोसों दूर छोड़ देता है। कभी-कभी मनुष्य को अविश्वासी होकर भी कार्य करते रहना चाहिए। नास्तिक लोगों का जीवन भी कितना विचित्र है। उनके लिए न तो कोई तीर्थ है और न कोई तीर्थयात्रा ,पाप-पुण्य के चक्रव्यूह मे वह फंसना नहीं चाहते,परमेश्वर तत्व का उनके लिए न कोई अस्तित्व है और न महत्व। कितना पावन जीवन वह व्यर्थ ही नीरस और निर्जीव रूप मे नष्ट कर देतें हैं। उनके लिए तीर्थटन,केवल पर्यटन का ही एक विस्तृत स्वरूप है। तीर्थटन मे छिपे अमृत तत्व का उन्हे बिलकुल भी आभास ही नही है। श्रद्धावान एंव सौभाग्यशाली मनुष्यों को ही अपने पूर्वजन्म के सत्तकर्म के कारण ही तीर्थयात्रा का पुण्यलाभ प्राप्त होता है। हम सबको अटूट श्रद्धावान होकर भागीरथी जी के समक्ष प्रार्थना करनी चाहिए कि - हे ! पतित पावनी,जग जननी माँ आप पापियों और पतितो का समान रूप से उद्धार करते हुए,पुण्य भारत भूमि मे विहारती रहें और आपका दिव्य अलौकिक अमृत जल,जिसमे आपका अमृतमय वात्सल्य मिश्रित है हमे अपार स्नेह व शान्ति प्रदान करें,इसी मनोकामना के साथ हम बारंबार गंगा मैया को प्रणाम करते हैं।       

                                         
भागीरथी शिला 


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Saturday, 26 November 2016

              

       स्तंभेश्वर महादेव - जहाँ कार्तिकेय जी ने क्षमा माँगी 



जलमग्न स्तंभेश्वर महादेव 

अनादिकाल से आर्य भूमि भारत वर्ष,अनेकों चमत्कारों एंव अवतारों से अभिभूत होती आई है। इस महान भूमि पर कई एसे रहस्यमय तीर्थ स्थान हैं,जिनकी जानकारी आम मनुष्य के लिए अभी भी विस्मय व आश्चर्य का विषय है। ऐसा ही एक महातीर्थ भारत के पश्चिमी राज्य गुजरात के अंतिम छोर पर समुद्र तट के निकट महिसागर स्तंभेश्वर महादेव के नाम से स्थित है। समुद्र से लगभग 300-400 गज की दूरी पर स्तंभेश्वर शिवलिंग स्थापित है,जहां प्रतिदिन दो बार समुद्र का जल अपने आप आगे बढ़ता है तथा इस आलौकिक शिवलिंग को पूरी तरह जल से ढक देता है। इस विचित्र व रहस्यमयी प्राकृतिक प्रक्रिया को देखकर ऐसा प्रतीत होता है,मानो स्वयं समुद्र देवता कैलाशपति महादेव का जलाभिषेक करने आये हैं। तिथि के अनुसार चलने वाली यह प्रक्रिया किसी भी मनुष्य को आचंभित व रोमांचित करने के लिए पर्याप्त है। सतयुग मे इस महातीर्थ पर कार्तिकेय जी ने अति कठोर तप किया था,जिस कारण उनके मन मे अहंकार की उत्पत्ति हुई। तब धर्म देवता ने इस तीर्थ राज को स्तम्भ अर्थात गर्व के कारण अप्रसिद्ध होने का श्राप दे डाला,किन्तु कार्तिकेय जी के क्षमा याचना करने पर धर्म देवता ने इस श्राप का निवारण इस प्रकार किया कि ज्यों ज्यों कलयुग बढ़ेगा,इस तीर्थ की विख्याति चारों और फैलेगी। अभी तक इस तीर्थ के गुप्त होने का यही प्राचीन वृतांत है।
दुग्धाभिषेक स्तंभेश्वर महादेव 

स्कन्द पुराण के कुमारिका खंड में नारद जी के यह पूछने पर कि इस पृथ्वी पर श्रेष्ठ,रमणीय एंव मनोरम तीर्थ कौन सा है,तो महर्षि भृग जी बोले कि महिनाम से प्रसिद्ध एक परम पावन नदी है,जो सर्व तीर्थमयी होने के साथ ही परम कल्याणकारी भी है। वह देखने मे मनोरम,सौम्य तथा महापापों का विनाश करने वाली पुण्य सलिला है। यदि कोई मनुष्य एक स्थान में सब तीर्थों का संयोग पाना चाहता है तो परम पुण्यमयी महिसागर संगम तीर्थ ही वह दुर्लभ स्थान है जिस स्थान पर मही नदी और समुद्र का संगम होता है। यही वो स्तम्भेश्वर तीर्थ है, जो तीनों लोकों मे विख्यात है। यहाँ जो मनुष्य स्नान करते हैं,वे सब पापों से मुक्त हो जाने के कारण यमराज के समीप नहीं जाते। महिसागर नामक गुप्त क्षेत्र में पूर्णिमा एंव अमावस्या को किया हुआ स्नानदानजप, होम और विशेषतः पिंडदान सब अक्षय होता है। पूर्वकाल में देवऋषि नारद के यहाँ वास करने पर शनिदेव जी ने उन्हे यह वरदान दिया कि जिस समय शनिवार के दिन अमावस्या हो, उस दिन यहाँ श्रद्धापूर्वक स्नान व दान करने पर अथवा श्रावण मास के शनिवार को अमावस्या तिथि व उसी दिन सूर्य की संक्रांति एंव व्यतिपात योग होने पर इस तीर्थ में किया गया कोई भी पुण्य कार्य महाफलदायक होगा। 

पुष्पाभिषेक स्तम्भेश्वर महादेव 

कार्तिकेय जी की भक्ति से प्रसन्न होकर कैलाश शिखर पर निवास करने वाले महादेव भोलेनाथ जी ने उन्हे यह आशीर्वचन दिया कि मैं सदैव यहीं निवास करूंगा अथवा जो मनुष्य बैसाख मास पूर्णिमा को नाना प्रकार के उत्तम कलशों द्वारा विधिपूर्वक सुगंधयुक्त जल से कुमकुम, पुष्पमाला, चन्दन, तंबूल, काजल, ईख, लवण और जीरा यह आठ सौभाग्यसूचक वस्तुओं से इस शिवलिंग की पूजा अर्चना करेगा, वह सदैव प्रसन्नतापूर्वक आरोग्य, पुत्रवान, धन तथा उत्तम सुख को प्राप्त होगा। यहाँ एक आश्रम का भी निर्माण किया गया है, जिसमे प्राचीन तपोवन शिक्षा के प्रचार-प्रसार हेतु बच्चों को वैदिक शिक्षा निःशुल्क प्रदान की जाती है। कावी निवासी श्री बंसीधर भट्ट जी के अनुसार श्रावण मास मे यहाँ बहुत भारी मेला लगता है तथा स्तंभेश्वर महादेव शिवालय में महारुद्राभिषेक व लघुरूद्रि पाठ का आयोजन किया जाता है। 
गुजरात के बड़ौदा अथवा बरुच शहरों से स्तंभेश्वर तीर्थ की दूरी लगभग 80-85 किलोमीटर है। तीर्थयात्री व रहस्यमयी जलाभिषेक (समुद्र देवता द्वारा) देखने के इच्छुक व्यक्ति गुजरात पथ परिवहन व निजी वाहन द्वारा सड़क मार्ग से जम्बू शहर (50-55 किलोमीटर) होते हुए कावी (30 किलोमीटर) पहुँच सकते हैं।  

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Sunday, 20 November 2016

          कैलाश मानसरोवर -आध्यात्मिक चेतना की विराट अनुभूति
शिव स्थली में महादेव का आशीर्वाद

सृष्टि के संचालक शिव शक्ति का निवास स्थान परम पवित्र कैलाश मानसरोवर सदा से ही सम्पूर्ण संसार को अपनी ओर आकर्षित करता रहा है। अनादि काल से ही कैलाश भूमि शास्त्रों मे सबसे पावन पुनीत क्षेत्र के रूप में चिंतकों, दार्शनिकों, कवियों एंव भक्तों की आस्था का अटूट केंद्र रही है। युगों - युगों से कैलाश के श्वास से ही सारी सृष्टि सुवासित होती आई है। इस आलौकिक भूमि पर आने के पश्चात ही इस बात की विराट अनुभूति होती है कि देवाधिदेव महादेव सदाशिव भोलेनाथ जी ने अपना निवास इसे ही क्यूँ चुना। भगवान शिव एंव माँ पार्वती की परम प्रिये क्रीड़ास्थली कैलाशभूमि पुरुष एंव प्रकृति अर्थात शिव और शक्ति के साक्षात दर्शनों का सुअवसर तीर्थ यात्रियो को प्रदान करती है। अनेकों नामों से विख्यात कैलाश पर्वत मेरु, सुमेरु, हिमाद्रि, रजतगिरी आदि अलंकारों से सुशोभित है तथा एक साथ चार धर्मों (हिंदुओं, बोद्ध, जैन, व तिब्बित के मूल निवासी बाम्प) धर्मावलंबियों द्वारा समान रूप से सपूजित है। सृष्टि निर्माण का मूल केंद्र होने के कारण प्रकृति ने इस क्षेत्र को इतना अनुपम एंव अलौकिक बनाया है कि जो भी मनुष्य एक बार यहाँ की अद्भूत छटा का रसपान कर लेता है, वह बारंबार यहाँ आने का प्रयास करता है।  

तिब्बित क्षेत्र में महायात्रा का आनन्द लेते कैलाशी 

पावन कैलाश मानसरोवर भूमि चीन द्वारा अधिकृत तिब्बित क्षेत्र में आती है। चीनी अधिपत्य से पूर्व प्राचीन काल से ही कैलाश मानसरोवर यात्रा निर्विघ्न सम्पन्न होती आ रही थी। किन्तु सन् 1959 में चीनी काम्यूनिस्ट सरकार ने इस तीर्थ यात्रा पर प्रतिबंध लगा दिया था। भारत सरकार के अत्यधिक अनुरोध के कारण 22 वर्ष बाद इस यात्रा पथ को दोबारा तीर्थ यात्रियों के लिए पुनः खोल दिया गया। वर्तमान मे कैलाश मानसरोवर यात्रा पर जाने के लिए तीन मार्ग अधिकृत हैं। 

भारतीय मार्ग (पिथौरागढ़) में तीर्थयात्री   

प्रथम मार्ग में तीर्थयात्री पिथोरागढ़, धारचूला, व लिपुलेख पास होते हुए लगभग 250 किमी का दुर्गम एंव श्रम साध्ये पैदल मार्ग तय कर कैलाश पहुँचते हैं। इस मार्ग की महायात्रा भारत सरकार द्वारा आयोजित होती है जिसमे सम्पूर्ण वर्ष में केवल 800-1000 तीर्थयात्री ही जाते हैं। समुद्र तल से लगभग 15000 फुट की ऊँचाई पर स्थित होने के कारण यहाँ जाने के लिए तीर्थयात्री का सम्पूर्ण रूप से स्वस्थ होना अत्यधिक आवश्यक है। चीन क्षेत्र मे होने के कारण तीर्थ यात्री को पासपोर्ट एंव वीज़ा की आवश्यकता पड़ती है। इस मार्ग की यात्रा एक माह में सम्पन्न होती है एंव लगभग 1,50000 का खर्च आता है जो की यात्री को स्वयं वहन करना पढ़ता है। अभी हाल ही के वर्षों मे भारत सरकार ने सिक्किम के नथुला पास से भी यात्रा आरम्भ की है। इस मार्ग से जाने वाले यात्रियो को पैदल बिल्कुल भी नहीं चलना पड़ता। इस मार्ग से यात्रा करने पर लगभग 1,80000 का खर्च आता है।


पशुपतिनाथ मंदिर (नेपाल)

तृतीय मार्ग नेपाल की राजधानी काठमांडू से कोठारी बार्डर, नयलाम, सागा होते हुए कैलाश की तलहटी तक पहुँचता है। इस मार्ग से प्राइवेट टूर ऑपरेटर तीर्थयात्रियों को बस एंव लैंडकुरुजर जीपों द्वारा बिना पैदल चले 18 दिन मे यात्रा सम्पन्न करवाते हैं। इस मार्ग से यात्रा करने पर लगभग 1,50000 का खर्च आता है तथा यात्रियो की संख्या पर भी कोई प्रतिबंध नहीं है। 

पवित्र मानसरोवर के किनारे पूजार्चना करते श्रद्धालु 

परम सत्य स्वरूप महादेव शिव के निवास स्थान में पहुँच कर एंव मानसरोवर मे स्नान करने मात्र से ही मनुष्य जीते जी ही कई जन्मों के बंधनो से मुक्त हो जाता है और शरीर त्यागने के पश्चात कैलाश निवासी सदाशिव भोलेनाथ के सानिध्ये को प्राप्त करता है। इसलिए इस महायात्रा को सशरीर स्वर्गारोहण का नाम दिया गया है। लोक-लोकान्तर के सृष्टिक्रम को संचालित करने वाले महादेव जिस रजतगिरी कैलाश शिखर पर विराजमान हैं उसके दर्शन मात्र से ही मनुष्य पाप मुक्त हो जाता है। कैलाश मानसरोवर से आए हुए तीर्थयात्रियों का यह अनुभव है कि इस दुर्गम एंव कष्टदायी (आनंददायी) यात्रा को सम्पूर्ण करने के पश्चात शेष जीवन सफर सुगम हो जाता है। 


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